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यद्यपि चाणक्य राज्य कार्य में विशेष भाग किन्तु उसके अधिकार तो भी पूर्ववत् थे असन्तोष चाणक्य से छिपा हुमा नहीं था। पूर्व २६५ के लगभग साँसारिक सुखों का दिगम्बर मुनि हो गया और तपश्चरण
साधना करने लगा ।
चाणक्य
नही लेता था । बिन्दुसार का अतः वह ई० परित्याग कर द्वारा प्रात्म
गोकुल स्थान मे संलग्न हो गया । प्रागमन सुनकर पूजा वन्दना
मुनि चाणक्य अपने पांच सौ शिष्यों के साथ विहार करता हुआ कोयपुर नगर के बाहर कायोत्सर्ग में स्थित हो प्रात्मध्यान में कौञ्चपुर का राजा सुमित्र मुनिसघ का उनकी वन्दना के लिए गया । और उनकी कर तथा धर्मोपदेश सुनकर नगर में वापिस लौट आया । राजा के मंत्री सुबन्धु ने क्रोधवश शाम के समय घासफूस इकट्ठा कर कण्डों में आग लगवा दी, जिससे चाणक्य ने पांच सौ मुनियों के साथ प्रायोपगमन संन्यास धारणकर, अग्नि के भयकर उपसर्ग को सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की' - अपने पद से विचलित न होकर समाधि से शरीर का परित्याग कर देवलोक प्राप्त किया ।
हरिषेण कथाकोष के अनुसार पांच सौ मुनियों के साथ प्रायोपगमन संन्यास का अवलम्बन किया, और महान उपसर्ग सहकर समाधि मरण द्वारा श्रात्म प्रयोजन सिद्ध १. गोट्ठे पयोगदो सुबंधुणा गोव्वरे पलिविदम्मि | उम्भन्तो चाणक्को पडिवो उत्तमं घट्ट ॥
-प्राराधना १५५६ गाथा
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किया। कौञ्चपुरीकी पश्चिम दिशा में चाणक्य की निषद्या बनी हुई है जिसकी साधु लोग भाज भी वन्दना करते हैं । जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है :
चाणक्यारूपो मनस्तत्र विशष्य पचशः सह। पांबोपगमनं कृत्वा शुक्लध्यानमुपेयिवान् ।। उपसगं सहिरवेमं सुबन्धुविहितं तथा । समाधिमरणं प्राप्य चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् || ततः परमविभागे दिव्य कोचरस्य सा । निवद्यका मुनेरस्य वन्द्यतेऽद्यापि सामूभिः ॥ -- हरिषेण कथाकोश पृ० ३३८ प्राराधना कथाकोश में 'उत्तमं
ब्रह्म नेमिदत्त ने
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अट्ठ' वाक्य का अर्थ किया है, जो ठीक प्रतीत नहीं होता । वह सिद्धान्त विरुद्ध जान पड़ता है। उन्होंने लिखा है कि उन मुनियों ने शुक्ल ध्यान मे स्थित होकर कर्मों का निःशेष नाश सिद्धि को (मोक्ष को) प्राप्त किया । उत्तमार्थ का अर्थ रत्नत्रय प्राति भी लिखा है । पर उत्तमार्च का पर्थ श्रेष्ठ प्रयोजन को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय सेत नहीं हुए किन्तु शरीर का परिस्याग कर देवलोक प्राप्त किया ।
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२. पापी बन्नामा च मंत्री मिध्यात्व दूषितः ।
समीपे सम्मुनीन्द्राणां कारीया कुपदी ॥४१ तदाते मुनयो धीरा, शुक्ल ध्यानेन संस्थिताः । हत्वा कर्माणि निशेष प्राप्ताः सिद्धि जगद्धिताम् ॥४२ - प्राराधना कथाकोष पृ० ३१०
जीवन में उतारने योग्य नीति वाक्य
१. यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवाद स्वयशोभ्यः चरन्तींगां निवारय ॥
यदि तुम अपने एक कार्य से संसार के प्राणियों के प्रिय एवं भद्धास्पद बनना चाहते हो तो दूसरों को बुराई करने वाली तथा मपनी प्रशंसा करने वाली वाणी को अपने मुख से कभी न कहो ।
२. ग्रात्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
जो बात तुम्हें प्रपने लिए प्रिय नहीं लगती उसका प्रयोग तुम दूसरे के लिए कभी मत करो ।
३. मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥
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दुष्ट योग मन में कुछ और विचारते है, बचने से कुछ पौर कहते हैं तथा कार्य कुछ और ही प्रकार का करते हैं । परन्तु महात्मा लोगों के मन, वचन एवं कर्म तीनों में एकता होती है ।