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धनेकान्त
२१६, वर्ष २५, कि० ५
और
सहा
और
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और कौशल से तैयारी करना शुरू कर दिया। विन्ध्याटवी में पूर्व सचित किये हुए विपुल धन की यता से विशाल सैन्य शक्ति का संग्रह किया पश्चिमोत्तर प्रदेश के पवन, काम्बोज, पारसीक, पुलात और सबर प्रादि म्लेच्छ जातियों की एक विशाल सेना तय्यार की । और पंजाब के मल्लि या मालव को अपना सहायक बनाया तथा गोकर्ण (नेपाल) के राजा पर्वत को साम्राज्य को प्राधा भाग देने का लोभ देकर अपना सहयोगी बनाया । और मगध के सीमावर्ती प्रदेशों को जीतना प्रारम्भ कर दिया और जीते हुए प्रदेशो को सुसंगठित और अनुशासित करने का पूरा प्रयत्न किया। और उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए राजधानी का घेरा डाल दिया । घोर युद्ध हुआ । कूट नीति श्रौर षड्यन्त्रों से नन्दों को पराजित कर दिया। यद्यपि नन्द बड़ी वीरत से लड़े और लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हुए प्रस्त में वृद्ध राजा महापद्म ने धर्मद्वार के निकट हथियार डाल कर श्रात्म समर्पण कर दिया। उसने चाणक्य से धर्म की दुहाई देकर सुरक्षित चले जाने की याचना की। चूकि चाणक्य की अभिलाषा पूर्ण हो चुकी थी । अतः उसने द्रवित होकर नन्दराज को सपरिवार राज्य त्यागकर अन्यत्र चले जाने की अनुमति दे दी। और यह भी कह दिया कि आप अपने साथ में जितना धन ले जा सको ले जाम्रो । वृद्ध नन्द ने अपनी दो पत्लियो, पुत्री और थोडा साधन लेकर नगर का परित्याग कर दिया । जाते हुए मार्ग में नन्द पुत्री सुप्रभा ने विजयी सेना नायक चन्द्रगुप्त के रूप को देखा, वह उस पर मोहित हो गई। इधर चन्द्रगुप्त की भी वही दशा हुई। दोनों की दशा लक्ष्य मे कर नन्द और चाणक्य ने विवाह की अनुमति दे दो । अब चन्द्रगुप्त मौर्य सुप्रभा को पट्टमहिरी बना कर मगध के राज्य सिहासन पर ग्रारूढ हुआ । और नन्द के जन-धन शक्ति सम्पन्न साम्राज्य का अधिपति हुआ । चार वर्ष के युद्ध प्रयत्नों के बाद सन् ३१७ ई० पूर्व पाटली पुत्र में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई । चन्द्रगुप्त के संम्राट् बनने के पश्चात् चाणक्य ने नन्द के मंत्री राक्षस के षड्यन्त्रों को विफल किया। धौर उसे चन्द्रगुप्त की सेवा करने को राजी कर लिया। धौर किरातराज पर्वत
को राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या करने के लिए भेजी गई विष कन्या के प्रयोग द्वारा मरवा डाला । इस तरह चन्द्रगुप्त का राज्य निष्कण्टक हो गया । चाणक्य को राज्य का प्रधान मंत्री बनाया, और चन्द्रगुप्त ने चाणक्य के सहयोग से शासन की 'सुव्यवस्था की । मौर्य साम्राज्य
का संगठन विस्तार बराबर वृद्धि करता रहा । ई० पूर्व ३१२ मे उसने प्रवन्ति को विजित कर उसे साम्राज्य की उप राजधानी बनाया। इस तरह चाणक्य ने नन्दवश का समूल नाश कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। और मौर्य साम्राज्य का प्रधान मंत्री बन कर उसे शक्तिशाली बनाने का उपक्रम किया ।
द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के समय चन्द्रगुप्त ने राज्य का परित्याग कर भद्रबाहु से दीक्षा लेकर दक्षिण की ओर उनके साथ चला गया। तब भी चाणक्य बराबर राज्य का संचालन करता रहा ।
चाणक्य राज्यनीति का पूर्ण पण्डित था। माम्राज्य की उन्नति और प्रजा में सुख-शान्ति की समृद्धि कैसे बने यह उसका ध्येय था । उसका लोक व्यवहार व्यावहारिक, नीतिपूर्ण और प्रसप्रदायिक था। वह ग्रन्तिम अवस्था में साधु के रूप मे पक्का जैन था उसकी एक मात्र कृति 'अर्थशास्त्र' है। यद्यपि वह लोकशास्त्र और वह अपने श्रमजी मूल रूप में अनुपलब्ध है । पर जो उपलब्ध संस्करण प्राप्त है वह उसके बहुत कुछ बाद का और क्षेपक सस्करण है । तो भी उसमें जैनधर्म और जैनो का उल्लेख है। उसमें जंनो के प्रति कोई विद्वेष प्रदर्शित नहीं है किन्तु न्याय सम्पन्न वैभव प्राप्ति के प्रकरणो मे जैन धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है ।
बिन्दुसार (ममित्रघात) के समय भी चाणक्य मंत्री पद का कार्य कता रहा है किन्तु बिन्दुसार को उसका प्रभाव सह्य नहीं था । उस समय चाणक्य पर्याप्त वृद्ध हो चुका था और वह राज्य को छोड़ कर आत्म-साधना का इच्छुक था । किन्तु चन्द्रगुप्त के प्राग्रह से उसके पुत्र की देख-रेख करने के लिए कुछ समय के लिए वह ठहर गया था। बिन्दुसार युवक था और वह उसका प्रादर भी करता था; किन्तु वह उसके प्रभाव से प्रसंतुष्ट था।