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क्या प्राणी सुख प्राप्ति में पराश्रित है ?
सुखदुःख
मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्थ
संसार में लोग प्रायः ऐसा कहते सुने जाते हैं कि जो भगवान को मंजूर है वही होता है । अर्थात् हमारा सुखदुःख भगवान की इच्छा के अधीन है। लेकिन इस प्रकार की धारणा ठीक नहीं यह केवल शिष्टाचार की वस्तु है । जैन सिद्धान्तानुसार यह जीव स्वयं ही अपने सुख दुःख
कर्ता तथा भोत है। सिद्धान्त चक्रवर्ती माचार्य श्री नेमिचन्द्र जी ने अपने ग्रन्थ द्रव्यसग्रह में जीव के नो अधिकारों को बतलाते हुए इसके स्वरूप का वर्णन किया है कि
जोश्रो उपयोगमो प्रमुत्तिकला सवेहपरिमाणो । भोता संसारथ्यो सिद्धो सो बिस्ससोढगई ।
जीव ज्ञानवान अमूर्त (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पुद्गल गुणों से रहित ) कर्ता - अपने धच्छे बुरे कार्य का स्वयं करने वाला, स्वदेह परिमाण अर्थात् जिस शरीर मे रहता है उसके परिमाण तथा भोक्ता अपने किये शुभ अशुभ कर्म के फल को स्वयं पाने वाला होता है । जो जीव संसार बन्धन से मुक्त होता है वह स्वभाव से ऊर्ध्व गमन कर जाता है ।
जीव के इस स्वरूप से हमें ज्ञात होता है कि हम अपने सुख दुःख के पाने में किसी ईश्वर या शक्ति विशेष के पति नहीं है। जैसा हम करते हैं, वैसा ही फल भोगते हैं । कुछ लोग ऐसा विचार रखने वाले को यह कह कर कि यह ईश्वर भगवान को नहीं मानता नास्तिक कहते हैं। लेकिन यह मनुष्य की भूल है परमात्मा ईश्वर की सत्ता मानना और बात है तथा उसे प्राणियों सुख दुःख देने वाला मानना भीर बात है। शास्त्रों का वह वचन है कि
को
अशो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा वभ्रमेव वा ॥ अर्थात् यह प्राणी प्रज्ञ-नादान है
घोर स्वयं अपने
सुखदुःख को पाने मे सर्वथा असमर्थ है, यह ईश्वर के द्वारा प्रेरित हुआ। स्वर्ग या नरक में जाता है। इस प्रकार के विचार से मनुष्य मे अकर्मण्यता प्राती है वह सोचता है कि मेरे सुख दुःख ईश्वर के अधीन हैं। वह जैसा चाहेगा सुख दुःख देगा । मेरे करने से उसमे कुछ नही हो सकता, लेकिन इस प्रकार का विचार सर्वथा गलत है । हम अच्छा या बुरा जंसा कार्य करते है उसका वैसा फ्ल पाते हैं । जैसे मनुष्य भोजन खाता है तो उसमे क्षुषा रोग की निवृत्ति होती है उसी तरह हम अच्छा या बुरा जैसा कार्य करते हैं उसका सा फल पाते है"कर्म प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस कर सो तस फल चाखा ।"
अर्थात् यह संसार कर्मप्रधान है जो जैसा शुभ या अशुभ 'कर्म करता है वह उसका वैसा ही प्रच्छा या बुरा फल पाता है । "जैसा बोम्रो वैसा काटी" की उक्ति यही सिद्ध करती है कि जैसा हम करते है तदनुसार ही फल पाते हैं। यदि हम सुखी होना चाहते हैं तो हमें कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे हम दूसरो के दुख पहुँचाने वाले बनें । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप बतलाये गये हैं । इनके करने से हम निरन्तर दूसरे प्राणियों को दुःख पहुँचाते रहते है । अपनी स्वार्थ साधना में हमें यह महसूस नही होता कि ऐसा करने से दूसरों का हित होगा या महित जैसे एक मनुष्य नीम का बीज बोकर मीठे फल प्राप्त करने के साधन स्वरूप ग्राम के पेड़ को प्राप्त नहीं कर सकता उसी तरह पाप कार्य करते हुए कोई सुख प्राप्ति का साधन पुण्य नहीं प्राप्त कर सकता ।
गीता में श्रीकृष्ण जी ने बतलाया है किउद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ग्रात्मव प्रात्मनोवन्मुः धात्मंव रिपुरात्मनः ।