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१४४ वर्ष २५, कि० ४
किसी को गुरू बनाया, न किसी शास्त्र का धनुगमन किया और न किसी को शीश नवाया । प्रभिमान नही था, यह सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति अत्यधिक समर्पण था जहां व्यक्ति, ग्रंथ और पंथ मिट जाते हैं। उन्होंने जो कहा वह शास्त्र बन गया, जिधर निकले वह पथ बन गया । उनकी प्रतिभा और प्रमूर्च्छा के समक्ष सारे ग्रंथ निर्ग्रन्थ बन गये ।
अनेकान्स
महावीर वैज्ञानिक दृष्टि के प्रवर्तयेज्ञानिक किसी बने-बनाय या पूर्व निश्चित सत्य का अनुगामी नही होता । उसका सतत प्रवाहशील, प्रगतिशील श्रोर नितनूतन श्रायामों को प्रकट करने वाला होता है । यही सम्यकदृष्टि है । सम्यकत्व सम्पन्न भाख ही ठीक-ठीक दशन कर पाता है। उन्होने तो कहा है कि बाहर की प्रांख का भरोसा ही न करो विवेक की लाख खुनी रखो। ग्रन्थि से छूटना ही मोक्ष है । अन्धा अनुकरण या श्रनुगमन सम्यकत्व नहीं है ।
महावीर की अन्तिम यात्रा कुल मिलाकर ७२ वर्ष की थी । लेकिन ये ७२ वर्ष उनके लिए बहुत अधिक है । जो मुच्छा और प्रमाद से ग्रस्त है, ऐसे लोग ७२ ही नही ७२०० वर्षो में भी एक कदम आगे नहीं बढ़ पाते। महावीर की यह यात्रा निरन्तर भांख खोलकर चली है। एक पल का भी लाख नही झपका है । इतनी उत्कट जागरूकता अन्यत्र नही मिलती। यह सतत अपलक जागरूकता क्या थी ? यह असीम करुणा की दृष्टि थी ।
ये भारत थे। परिहंत का अर्थ है अपना निर्माण स्वयं करना । अपना पथ स्वयं बनाना और अपनी मंजिल प्राप्त करना । अपने भीतर रहे हुए शत्रु को पहचानो, उसका सामना करो पौर निकाल बाहर करो, फिर देखो
व्यक्तित्व कैसा चाँद सा शीतल मौर सूर्य सा प्रखर बनता है, शरीर कैसा स्फटिक की तरह दमकता है । उसे फिर कहाँ है नहाने धोने की, खाने-पीने की महावीर इतने सहज हो गये थे कि एक बार तो पाँच महीने तक आहार नहीं किया । आत्मस्वरूप में लीनता ही तो सम्यक परिय है। वही उनकी सीख है।
आज का युग घोर विषमताम्रो से ग्रस्त है । महावीर ने वीतरागता की जो वैज्ञानिक दृष्टि दी है, जो पथ बताया है। उसके हार्द को ग्रहण कर भाज की समस्यानों से निपटा जा सकता है। अगर हम महावीर के जीवन की स्थूल घटनाओ को ही महत्व देने लगेगे और उन्हीं मे उनको खोजेंगे तो हम अपनी मंजिल पर तो पहुँचेगे ही नही महावीर को भी समझने मे भूल करेंगे । अब तक शायद यही भूल हमसे हुई है । शाश्वत सत्य की ओर जाने के लिए घटनाथो को पीछे छोड़ना ही होगा, वे छूट ही जायेगी ।
चारित्र्य की बघी- बघाई लोको पर चल कर हमारे हाथ सत्य नही या सकता । हा, तथ्य हमारे हाथ श्रायेगे उनमे हमें रस भी आयेगा, उनमे चमत्कार भी पिरोये जा सकते है लेकिन यह सब श्रात्मस्थ स्थिति नहीं है, कायस्थ स्थिति होगी। महावीर एक व्यक्ति नहीं थे, एक सबल विचार थे, एक तेजस्वी व्यक्ति थे । शरीरघारी महावीर का पास भी पावन करता है, उनको छबि का दर्शन भी आँखों को भाव-विभोर कर देता है, लेकिन विदेह महावीर का प्रात्म व्यक्तित्त्व तो हमें शाश्वत सुख की मजिल तक पहुँचाने मे समर्थ है । उस अनंत दर्शनज्ञान घारी वीरात्मा को सहस्र-सहस्र वन्दन ।
- ( वीर निर्वाण विचार सेवा के सौजन्य से )
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