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महावीर : एक विचार व्यक्तित्व
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वस्त्रों से, परिधान से, मावरण से, वासना और विकार पुरुष को, अनन्त ज्ञानी को या सम्यज्ञानी को छोना अधिक ही उजागर होते हैं। महावीर का जीवन तो क्या था? क्या वे इन सब बाह्य पदार्थों में रमे हुए थे खुली किताब था, माकाश की तरह स्वच्छ, निर्मल था या इनको पकड़े हुए थे कि छोड़ना पड़ा था ? उनको तो वहाँ हर तरह का भावरण बाधक था। उनके चरण ऐसे अपने पथपर आगे बढ़ना था। इस प्रक्रिया में जो कुछ पीछे पड़ते थे मानों घरा कमल का स्पर्श कर रही हो अथवा छटना था, छूट गया। न उनके साथ कुछ माया था, यों भी कह सकते हैं कि जहां भी उनके चरण पड़ते थे न कुछ साथ जाना था। यह तो प्रासक्त या परिग्रही वहाँ का वातावरण एक सुगंधि से, पवित्रता से भर जाता लोगों को लगता है कि किसी ने कुछ छोड़ा। मासक्त था। उनके तन की स्वाभाविक और प्रखर क्रान्ति जन- चित वस्तु को पकड़े रखता है, उससे चिपका रहता है। जन का मन मोह लेती थी उनके तन को निरख कर छोड़ना उसके लिए बड़ी बात है और जब महावीर यो वासनाग्रस्त अथवा मलिन मन पवित्र हो उठता है। उस ही सहज भाव से निकल पड़े तो उलझे लोगो के लिए, वीतराग-दर्शन में स्त्री-पुरुष का भेद मिट गया था। असमर्थ लोगों के लिए वह चमत्कार बन गया । एक जिनके तन में दुग्ध के रूप में मातु-वात्सल्य भरा हो, समारोह की शक्ल ले बैठा और ऐसे ही भोग से भरे वहाँ शरीर को सजाने संवारने का प्रश्न ही कहाँ रहता लोगों की तालिका बना ली कि महावीर ने क्या-क्या है ? विकार तो उसमें होता है जिसमें शक्ति नहीं होती। त्यागा। महावीर तो जानते थे कि महल मकान तो दूर हमारे सारे प्रावरण हमारे घनीभूत विकारों के प्रतीक है। यह तन भी उनका नहीं है, यह भी एक प्रावरण ही है। केवल ज्ञान-जन्य दस विशेषताएं वणित है। शुद्ध
उसे भी जिस दिन छूटना है, छूट जायगा। उनकी कही ज्ञानी का व्यक्तित्व सूर्य सा तेजस्वी, स्फटिक जैसा पार
कोई पकड़ या जकड नहीं थी। यही कारण है कि उनका दर्शक, प्राकाश की तरह निर्मल, फूल से भी कोमल,
सहज अभिनिष्क्रमण हमारे लिए महान मंगल बन गया, चन्द्र से भी शीतल होता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन
कल्याणक बन गया; जो कहते हैं कि महावीर ने इतना. सृष्टि के कण-कण के साथ प्रोत-प्रोत हो जाता है।
इतना त्यागा, यह महावीर की प्रात्मा की पावाज नहीं महावीर का अस्तित्व ही परम मगलकारी था, उनके
है. यह उन लोगों की भाषा है जिनके मन में भोग भरा दर्शन मात्र से प्रापमी वैर-विरोघ मिट जाता था, उनकी
है और त्याग को कीमती मानते है बीमार ही स्वारथ्य का भाषा को सब प्राणी समझ लेते थे । कही प्रकाल नही
मूल्य प्रांकता है, स्वास्थ्य को तो पता भी नहीं चलता कि पड़ता था, प्रकृति हर्षोत्फुल्ल हो जाती थी' ऋतुए मस्ती
बीमारी क्या होती है। में झूमने लगती थी। यह सब ऐसी विशेषताए हैं कि
महावीर ने कोई पगडंडी, संकीर्ण मार्ग नहीं पकडा इनसे सम्पन्न पुरुष व्यक्तिगत रह ही नहीं जाता। इसी
था, वे तो सीधे राज-मार्ग पर चल पडे थे। वह राजलिए कहना पड़ता है कि महावीर के व्यक्तित्व को मार्ग भी उनका अपना था। उन्हें कोई अभ्यास नही सीमित देह में, सीमित काल मे खोजना व्यर्थ है। वह
करना पड़ा कि प्राज इतना चलना है और कल उतना एक विचार व्यक्तित्व था, जो प्रखड है शाश्वत है।
चलना है। उनका पथ पूर्णता का, समग्रता का पथ था। उनकी तो छाया भी नहीं पडती थी: क्योंकि किसी के महावन का था। मुक्ति का पथ महाव्रत से ही शरू होता स्वाभाविक विकास में बाधा पड सकती है। उनके कदम है। अणुवत से होकर जो महावन पे जाते है, वे सम्यकत्व ऐसे पहते थे कि मिटी के एक कण को भी प्राघात से भी बहुत दूर है। अणुव्रत तो शारीरिक क्रियापों न पहुंचे।
की विवशता मात्र है । धीरे-धीरे, क्रमिक रूप से त्याग महावीर की दीक्षा ग्रहण का कल्याणक मनाया गया। की भोर वही बढ़ता है, जिसकी पकड़, जिसकी वासना कहते हैं उन्होंने राज सुख छोड़ा, घर-बार त्यागा, विपुल गहरी होती है, जिसकी ग्रन्थि पक्की होती है। वैभव का त्याग कर दिया। लेकिन महावीर जैसे पूर्ण महावीर निकल पड़े सो निकल पड़े। उन्होंने न