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५२, वर्ष २५, कि० २
भनेकान्त
कारणों से चित्त विक्षिप्त हो जाता है। कषाय भाव रखता है और समाधि मरण की भावना रखता है। जब जागृत हो जाते हैं । उससे जीवन भर जो कुछ अच्छे कर्म शरीर स्वस्थ न रहे. रोगादि होने पर उसका प्रोषधादि द्वारा सम्पन्न किये है-धार्मिक अनुष्ठान किये हैं-उन सब रोग का प्रतिकार न हो सके और वह बढ़ता ही रहे, ऐसी पर पानी फिर जाता है । इसी से महापुरुषों ने शरीर का स्थिति में साधक को उसका परित्याग करना ही श्रेयस्कर परित्याग करते समय पूर्ण सावधानी रखने का निर्देश है। इतना तो सुनिश्चित है कि सम्यग्दर्शन, सम्यक् ग्यान, किया है । स्वरूप की सावधानी बनाये रखने के लिए मम्यक चारित्र और सम्यक् तप इन चार प्राराधनामों का सल्लेखना का उपक्रम किया गया है और उसका एक मात्र निर्दोष पालन करते हुए शरीर छोड़ने पर जो उत्तम प्रयोजन मानव जीवन की सफलता है। उसके बिना यह लाभ मिल सकता उसके प्रति प्रयत्न करना जरूरी है। जीव अनन्त बार मरण कर अनेक कुगतियों में जन्म लेकर सांसारिक दुःखों को सहता है। उनसे बचने पोर जीवन
प्राचार्य ममन्तभद्र (विक्रमी दूसरी-तीसरी शताब्दी)
ने भी जीवन में अनुष्ठित तपों का फल अन्त मे पुर्ण शक्ति में किये गये व्रत, उपवास, संयम और इच्छा निरोध रूप
के साथ सल्लेविना करना बतलाया है। तप, दान, पूजा पादि शुभ कर्मों द्वारा होने वाले पुण्य फल के माथ समता भाव की वृद्धि के लिए समाधि मरण
प्राचार्य पूज्यपाद ने भी सल्लेखना के महत्व और करना प्रावश्यक है। वैसे तो प्रायु मे से जितना समय
पावश्यकता पर जोर दिया है। और लिखा है कि 'मरना रोजीना व्यतीत होता है वह नित्य मरण है, परन्तु उस
किसी को इष्ट नहीं है जिस तरह सोना, चाँदी, रत्न,
जवाहिरात और बहुमल्य वस्त्र आदि का व्यापार करने नित्य मरण के होते हुए जीवात्मा यह भावना करता
वाले किसी व्यापारी को अपने उस घर का विनाश इष्ट रहता है कि-'मे समाहि मरणं होउ, सुगइ गमणं होउ,
नही है । जिसमे बहुमूल्य वेश कीमती चीजे भरी हुई हैं। दुक्खखय होउ' अथवा अरिहंतादि परमेष्ठियो ने जो
यदि किसी कारणवश कोई विनाश का कारण उपस्थित हो शाश्वती गति प्राप्त की है वह गति मुझे प्राप्त हो, यह
जाय, तो भी वह उसकी पूरी रक्षा करने का प्रयत्न करता भावना कितनी महत्वपूर्ण है जिसे वह निरन्तर भाता है।
है और यदि कारणवश रक्षा का उपाय सफल नहीं होता सल्लेखना की महत्ता
तो उसके घर मे रखे हुए बहुमूल्य पदार्थों के सरक्षण सल्लेखम की महत्ता का प्रमाण यह है कि महापुरुषों
करने का पूरा प्रयत्न करता है और घर को विनष्ट होने को कायक्लेशादि तपश्चरणो, अहिंसादि व्रतो के निर्दोष
से बचाता है उसी तरह व्रत शीलादि सद्गुणों का भाचरण अनुष्ठानादि द्वारा जो फल प्राप्त होता है वह फल जीवन
और संचय करने वाला व्रती श्रावक अथवा साधु भी उन के अन्तिम समय में सावधानी से किये गए समाघि मरण
व्रतादि गुणो के आधारभूत शरीर का पौष्टिक आहार से जीवों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और सारा
प्रौषधादि द्वारा रक्षा करता है । उसका विनाश उसे इष्ट जीवन वतादि के पालन में लगा देने पर भी यदि अन्तिम
नहीं है। यदि व्रत विनाश के कारण असाध्य रोगादि जीवन मे समता भाव पूर्वक मरण न किया और न कषायों के रस सुखाने का यत्न किया और वैसे ही शरीर छोड
उत्पन्न हो जायं तो भो उनको यथासाध्य दूर करने का दिया तो उससे जो लाभ मिलने वाला था वह उससे
प्रयत्न करता है। पर जब वह देखता या अनुभव वचित हो जाता है। अतः साधक हर समय सावधानी
करता है कि उनका दूर करना अशक्य है और शरीर की
रक्षा भी अब सम्भव नही है, तब वह प्रात्मा के अमूल्य १. यत्फल प्राप्यत सद्भिज्ञतायास विडम्बनात् ।
गुणों की रक्षा सल्लेखना द्वारा करता है और शरीर को तत्फल सुख साध्य स्यान्मृत्युकाले समाधिना ।। तप्तस्त तपश्चापि पालितस्य व्रतस्य च ।
१. अन्त: क्रियाधिकरण तपः फल सफलदशिनः स्तुवते । पठितस्य श्रुतस्यापि फल मृत्युः समाधिना ॥
तस्माद्याद्विभवं समाधिकरणे प्रयतितव्यम् ।। -मृत्युमहोत्सव श्लोक २१-२३
-रत्नकरण्ड ५२