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________________ सल्लेखना या समाधिमरण परमानन्द जैन शास्त्री जो मानव प्रात्म-कल्याण की भावना से गृह कार्यों में मूल कारण है। कषाय की कृशता का अर्थ स्वरूप की सदा उदासीन रहता है, देह भोगों से वैराग्य द्वारा उसे सावधानी अथवा चिद्रूप की तन्मयता है प्रौदयिक भावों बराबर पुष्ट करता रहता है, व्रताचरण में अनुराग रखता का रुकना अपने भाधीन नहीं है, किन्तु उन मौदयिक है । कषाय शत्रुषों के फदे से अपने को बचाना चाहता है, भावों को मनात्मीय समझ उन मे हर्ष-विषाद रूप प्रवृत्ति न अथवा राग-द्वेष के परित्याग के लिए चारित्र. धर्म का करना प्रात्मीय पुरुषार्थ है । सल्लेखना मे प्रात्म पुरुषार्थ पाचरण करना अपना कर्तव्य मानता है। देव शास्त्र । की प्रधानता है, क्योकि कल्याण का मार्ग प्रात्मा है, बाह्य पौर गुरु की श्रद्धा के साथ तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर क्षेत्र नहीं । अनादिकाल से प्रात्मा को बाह्य साधनों की वस्तु स्वरूप को जानने का निरन्तर प्रयास करता है। भोर रहने से वह अपने स्वात्म-सूख से वंचित रहता है। जो श्रावक के द्वादश व्रतों का तत्परता से अनुष्ठान करता प्रतः उसे कषाय कृशता-रस शोषण-द्वारा स्वात्म-सुख है, अथवा अन्तर्बाह्य ग्रन्थि (परिग्रह) को छोड़कर दिगम्बर की ओर प्रवृत्त करना ही कषाय सल्लेखना का प्रयोजन बनकर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन का अनुष्ठान करना है। इसी से कषाय सस्लेखना को महत्व दिया गया है। है तथा अन्तर विवेक द्वारा वस्तु तत्व का विचार करता शरीर की कृषता बाह्य सल्लेखना है। पर मध्यात्म हुमा अपनी इच्छाओं को सीमित बनाता जाता है, इन्द्रिय दृष्टि से शरीर को कृशता और पुष्टि अपने भाधीन नहीं विषयों का कठोरता से दमन करता है और निदोष व्रता- है। कर्मोदय उसमे मूल कारण है, शरीर पर है, पुद्गल चरण करते हुए जीवन की अन्तिम दशा मे 'मारणान्तिकी. का परिणाम है, ऐसा होते हुए भी मोहवश हमारी प्रवृत्ति संल्लेखनां जोषिता' वाक्य का स्मरण कर सल्लेखना या शरीर की पोर ही रही है। हम उसे अपना मानकर समाधिमरण की निरन्तर भावना करता है और अन्त उसमे राग करते पाये हैं। प्रतः अन्त समय पाने पर समय पाने पर या उपसर्ग, दुभिक्ष तथा मृत्यु के अनिवार्य उसका राग परिणाम विकृति का कारण हो सकता है। कारण रोगादिक उपस्थित होने पर शरीरादि से मोह का इसी से महापुरुषों ने उससे स्नेह का त्याग करना बतपरित्याग करता है और समता भाव से शरीर का परि लाया है। त्याग कर व्रतादिक की सफलता चाहता है। और उसके १ का सफलता चाहता है। और उसके सल्लेखना का प्रयोजन लिए प्रयास करता है। सल्लेखना का प्रयोजन उपसर्ग, दुभिक्ष, जरा (बुढ़ापा) सहलेखना और रोग की प्रतिकार रहित अवस्था मे, अथवा अन्य ___ सम्यक प्रकार से काय और कषाय को कृश करना कोई भीषण विपदा पाने पर अपने रत्नत्रय रूप धर्म की सल्लेखना है। सल्लेखना दो प्रकार की है। काय सल्ले रक्षा के लिए विधिवत् शरीर का परित्याग करना सल्ले. खना भौर कषाय सल्लेखना। इन दोनों में कषाय सल्ले- खना है। अन्त समय मे-शरीर का परित्याग करते खना का महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि उसका सम्बन्ध उन समय-स्वरूप में प्रायः सावधानी नहीं रहती, अनेक बाह्य कषायात्मक विभाव परिणामों से है जो प्रान्तरिक ज्ञान १. उपसर्गे दुर्भिक्ष जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे । दर्शन शक्ति का घात करते हैं। उसी से प्रात्मा मे इष्ट धर्माय तनुविमोचनमाहु सल्लेखना मार्या ।। मनिष्ट की कल्पना होती है। यह कल्पना ही दुःख का -रत्नकरन्ड श्रावकाचार .
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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