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________________ मुक्तक काव्य दोहा अध्यात्मी पांडे रूपचन्द बकरे तुम चापि यह करत नीच के काम । पर घर फिरत जु लघु भए, बहुत धराए नाम ॥३३ अपने ही घर सब बड़े पर घर महिमा नाहि । सिव के मरु भव के रहें, फेरु कितो इहि मांहि ॥३४ सिव छांई भव हाडहू, यह व तिहारो जान । राजतने भिक्षा भमै, सो ते किया कहानु ॥३५ चेतन तुम प्रभु जगत के, रंक भए बिललात । बंठे चौक जू चाट हू, चू न सक्यो लजात ।३६ वेतन तुमहि कहा सदी, रतनत्रय निधि दावि । रहे दोन हुइ कृपण ज्यों, कहा वहै फलु भावि ॥३७ प्रथम प्रचेतन मनु प्रसुचि, करइ मिल महि हानि । चेतन तन मो वसत हो, कहा भलाई जानि ॥३८ तनकी सगति जरत हो, चेतन दुख मरु ढाप । भाजन संग सलिल तप, ज्यों पावक माताप ॥३६ क्षीर नीर ज्यों मिल रहपो, कौन कहै तनु प्रौर। तुम चेतन समझत नहीं, होत मिले महि चोर ॥४० भिन्नु भयो भीतर रहै, वाहिर मिल्यो न काउ । पर परतीत न मानिए, शत्र न चूको दाउ ॥४१ पर की संगति तुम गए, खोई अपनी जाति । पापा. पर न पिछान हू, रहे प्रमादनि माति ।।४२ सहज प्रकृति तुम परिहरी, पकरी पर की वानि । प्रकृति फिर.ज्यौं पुरुष को, होइ सरवथा हानि ॥४३ जो कछुकर सुपर करं, करंज तुम्हरी छांहि । दोष तिहारे सिर चढ़े, तुम कछु समुझत नांहि ।।४४ पर सौ खंग कहा कियो, पर ते मानव होय । सवर परके परिहर, विरला बूझ कोय ॥४५ पर संजोग ते बंध है, पर वियोग ते मोख। चेतन.परहि मिले तुम्हें, लागतु हैं सब वोषु ॥४६ चेतन तुम तो सुजान हो, जड़ सौ कहा सनेह । जड़ ज्ञानहिं क्यों बनत है, मेरे मन संवेहु ॥४७ अपनों ई अपनी भलौ, अपने मोर न कोय । कोकिल कागु जु पोषियो, सो कागनि कुल होय ॥४८ स्व-पर-विवेक तुम्हें नहीं, परसों कहत जु प्रापु। चेतन मति-विभ्रम भयो, र विर्ष ज्यों मांपु ।।४६ चेतन तुम बेसुध भए, गए प्रपनपो भूलि । काहू तुम्हरे सिर मनों भेली मोहन पू॥५० मोह मते तुम प्रापको, जानत हो पर दव्य । ज्यों जन्मा त्यों कनक को, कनकुइ देखद सम्वु ॥५१ भ्रमत भुल्यो अपनपो, खोजत किन घट मांहि । विसरी बस्तु न कर चड़े, जो पेखहु पर चाहि ।।५२ घट भीतर सो मापु है, तुमहि नहीं कछु यादि । वस्तु मूठि भ्रम भूलिके, इत उत ढूढत वादि ॥५३ पाहन माहि सुबर्ण ज्यों, दारु विर्ष हुत-भोज। तिम तुम व्यापक घट विष, देखह किनकरि खोजु ॥५४ पचपन' विष सुवास ज्यौं, लिन विर्ष ज्यों तेल । तिम तुप घट महि रहत हो, जिनु जान यह खेलु ॥५५ वर्धन जान चरित्र में, बस्तु वसं घट मांहि । मरख मरमु न जान ही, बाहिर खोजन जाहि ॥५६ वर्शन ज्ञान चरित्र बे, बचनहि मात्र विशेष । बहन पचन अरु तपन ज्यों, प्रगनि ए पाहि मशेष ॥५७ दर्शन ज्ञान चरित्र कों, गहिये वस्तु पमाणि । पारो भार चीकनो, ज्यों कंचन पहिचानि ॥५८ दर्शन वस्तु जो देखिए, अरु जानिये सुज्ञानु । चरन सुरह निजतिहिविर्ष, तीन्ह मिले निरवान ॥५९ रत्नत्रय समुदाय विनु, साध्य सिद्धि कछु नाहि । प्रध-पंग अरु पालसी, जुदे जरहिं वव मांहि ॥६० एक जु ज्ञायक वस्तु है, साध्यनु साषकु सोय । मिरविकरूप हुइ लेइए, सिद्धि सरवथा होय ॥६१ वर्शन ज्ञान चरित्र जे, तीनिउ सापक रूप । ज्ञायक मात्र जु वस्तु है, ताहो के ति-स्वरूप ॥६२ कास रहित रस रहित है, गंध रहित जू अनूप । मह प्रतीति प्रमामिए वस्तु सुशायक रूप ॥६३ विषय नियत प्रति मन विष, प्रतिभासं जु कोय । अपने रस जो लवण ज्यों, विश्व विर्ष चिद्रूप ॥६४ १. अग्नि, २. पुष्प।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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