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________________ मोम् महम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २५ किरण २ बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० स० २०२६ 6 मई-जून १९७२ वर्धमान-जिन-स्तवन __(मुरजबन्धः) धीमत्सुवन्धमान्याय कामो द्वाषित वित्तषे । श्रीमते वर्धमानाय नमो नमित विद्विषे ॥ नामदेव क्षमाजेय धायोद्यमित विज्जुषे । श्रीमते वर्धमानाय नमोन मित विद्विषे ॥ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-हे वर्धमान स्वामिन ! आप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञान के धारी गणधरादिकोंके द्वारा वन्दनीय और पूज्य है। आपने ज्ञान की तृष्णा को बिल्कुल नष्ट कर दिया है-आपको सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो ग है जिससे आपकी ज्ञान विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी हैं, माप अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त हैं और आपके शत्र भी आपको नमस्कार करते हैं-पापकी अलोकिक शान्ति तथा लोकोत्तर प्रभाव को देखकर आपके विरोधी वैरी भी आपको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो! आपको मेरा नमस्कार हो ।।१०२ अर्थ-हे भगवन ! आप इन्द्र चक्रवर्ती अादि प्रधान पुरुषों के भी देव-इन्द्र हैं. आपका क्षमा गुण सर्वथा अजेय है पाप तेज से प्रकाशमान केवलज्ञान को प्राप्त हए हैं, आपकी मति-ज्ञान सम्पत्ति समवसरणादि लक्ष्मी से उपलक्षित है। आपके द्वारा प्रचलित मोक्षमार्ग हमेशा बढता रहता है अथवा प्रापका पुण्य उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, आप लक्ष्मी से परिपूर्ण है। तथा मतिभूत आदि क्षायोशमिक-अल्प ज्ञानों को दूर करने वाले हैं। अतः आपके लिए नमस्कार हो ॥१०३
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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