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५६, वय २५, कि०३
प्रेनेकान्त
मात्मा खेदित नहीं होता । क्योंकि वह मात्मीय-मनात्मीय केवल तेजस कार्माण शरीर है, उत्तरकालीन शरीर की अथवा जड़ और चेतन की परिणति से परिचित हो जाता पूर्णता भी नहीं है। है। शरीर की निष्पत्ति माता-पिता के रज और वीर्य से वहां भी माहारादि के अभाव में सम्यग्दर्शन का हुई है। इस शरीर के अन्दर भी मल-मूत्र, कफ प्रादि सद्भाव रहता है। अतः समाधिस्थ साधक को रंचमात्र प्रशचि पदार्थ भरे हुए हैं। ऊपर से चमड़े की चद्दर मढ़ी भी माकुलता करने की आवश्यकता नहीं है कि हमारा हो इसलिए खन-मास-पीव प्रादि से लिप्त अस्थि शरीर प्रतिटिन क्षीण हो रहा है। क्योकि पंजर दिखाई नहीं देता। किन्तु जब शरीर का कोई अंग द्रव्य है। उसके निमित्त से कोई कार्य बने या न बने, विकृत या गल-सड़ जाता है। और उसमें से दुर्गन्ध पाने इसकी चिन्ता करना निरर्थक है। पर यह ध्यान रखने लगती है। तब हमें उसके प्रति उतना रागभाव नही की प्रावश्यकता है कि प्रात्मा से सम्बन्धित वस्तु का कभी रहता । इस शरीर को सुगन्धित द्रव्यों से सज्जित करने विनाश नही हो सकता। यदि प्रात्सा प्रात्मीय भावो की और सेवा-सुश्रूषा करने पर भी वह विनष्ट होने से नही रक्षा कर लेता है, तो फिर उसका ससार तट समीप ही बचता। ज्यों-ज्यो हम उसकी रक्षा और सवर्धन का
समझना चाहिए । परमार्थदृष्टि से विचार किया जाय तो प्रयत्न करत है, त्यों-त्यों वह प्ररक्षित और दुबल बनता
श्रद्धान की बलवत्ता ही इस मे कार्यकारी है। अतः प्रान्तजाता है तथा उचित समय पर विनष्ट हो जाता है । अतः
रिक श्रद्धा में कमजोरी न पाये ऐसा प्रयत्न करना प्रावशरीर में रागभाव करना उचित नही है ।
श्यक है। मै एक चिदानन्द ज्ञायकस्वरूप है। रागादि समाधिस्थ गृहस्थ या मुनि तथा श्रावक के शरीर की
उपाधि भावों से रहित हूँ । इन चर्मचक्षुषो से जो सामग्री
सात भावों : अवस्था प्रतिदिन क्षीण हो रही है, क्षीण होना इसका देख रहा है, वह परजन्य है, हेय है, उपादेय तो निज स्वभाव है, परन्तु शरीर के ह्रास से हमारा कोई घात प्रात्मा ही है। यह भी विचारणीय है कि केवल परमात्मा या हानि नही होती। यह ज्ञानी स्वय जानता है । शारी- के गुणगान से परमात्मपद नही मिलता, किन्तु परमात्मा रिक शिथिलता से उसके इन्दियादिक प्रग भी शिथिल हो द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अवलम्बन करने से परमात्मपद जाते है किन्तु द्रव्येन्द्रिय के विकृत होने से स्वकीय भाव का लाभ मिल जाता है। अत: अन्य सकल्प-विकल्पो को इन्द्रियां भी कार्य करने में समर्थ नही हो पातीं। किन्तु
ज्जत्तकाले भवति।" मोहनीय कर्म के उपशम से सम्यक्त्व की क्या विराधना
चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरकर होती है ? मनुष्य जिस समय सोता है उस समय जाग्रत
देवो मे उत्पन्न होते है। उनकी अपेक्ष। अपर्याप्त. प्रवस्था के समान ज्ञान नही होता; किन्तु वहां भी
काल मे उपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । वेदक सम्यसंसारोच्छेदक सम्यक्त्व गुण का माशिक भी घात नही
क्त्व तो देव और मनुष्यों के अपर्याप्त काल मे ही होता। इसी से जैनाचार्यों ने अपर्याप्त अवस्था में भी
पाया जाता है; क्योकि वदक सम्यक्त्व के साथ सम्यक्त्व के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जहां पर
मरण को प्राप्त हुए देव और मनुष्यों के परस्पर १. "चारित्तमोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जति ते गमनागमन में कोई विरोध नही पाया जाता है।
मस्सिदूण अपज्जत्तकाले उवसम सम्मत्तं लम्भदि । कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा तो वेदक सम्यक्त्व तियंच वेदगसम्मत्त पुण देव-मणुस्सेसु प्रप्पज्जतकाले लभदि और नार की जीवों के अपर्याप्त काल मे भी पाया वेदग सम्मत्तेण सह गद-देव-मणुस्साणमण्णोण्ण-गमणा- जाता है। क्षायिक सम्यक्स्व भी सम्यग्दर्शन के पहले गमण-विरोहाभावादो। कदकरणिज्जं पडच्च वेदग बांधी गई प्रायुके बंध की अपेक्षा से चागे ही गतियों सम्मत्तं तिरिक्ख-णे रइयाणमपज्जत्तकाले लम्भदि । के अपर्याप्त काल में पाया जाता है इसलिए प्रसंयत खाइय सम्मत्तं पि चदुसुवि । गदीसु पुवायुबषं पड्डच्च सम्यग्दृष्टि जीवके अपर्याप्त काल में तीनों ही सम्यभपज्जत्तकाले लभवि-तण तिण्णि सम्मत्ताणि अप- पत्व होते है।