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सल्लेखना या समाधिमरण
पर्याय में समाधि मरण पूर्वक मरण करता है वह संसार मात्मा का प्रमरत्व में सात-पाठ पर्याय से अधिक भ्रमण नही करता उसके गुण कभी विनष्ट नहीं होते । प्रात्मा उन गुणों से बाद वह अवश्य मुक्ति पा लेता है।
सदा भरपूर रहता है। प्रास्मा एक है, शाश्वत है, प्रखंड एपम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेन जो मदो जीवो। है, अविनाशी है और ज्ञान दर्शन लक्षण वाला है। शेष णहुसो हिदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोतूण ॥ सभी पदार्थ प्रात्मतत्त्व से बाह्य और संयोग लक्षण वाले
सल्लेखना की महत्ता का उल्लेख करते हुए कहा है है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के निम्न पद्य से प्रकट कि सल्लेखना घारक (क्षपक का) भक्ति पूर्वक दर्शन- है :वन्दन और वयावृत्य प्रादि करने वाला व्यक्ति भी देव
एगो मे सहसदो मादा णाणसणलक्षणो। गति के सुखों का उपभोग कर उत्तम स्थान को प्राप्त सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्षणो॥ करता है।
प्रतः शरीरादि पर द्रव्यों से मोह छोड़कर प्रात्मत्व जैनागम मे मरण के सत्रह प्रकार बतलाए गये हैं। बुद्धि का परित्याग करना श्रेयस्कर है। चिदानन्दस्वरूप उनके नाम इस प्रकार है :
एक ज्ञायक भाव ही मेरा स्वरूप है। उस विमल प्रास्म१प्रावीचि मरण, २ तदभव मरण, ३ अवधि मरण,
भाव को प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य है । अतः भय परि. ४ मादि मन्ताय मरण, ५ बाल मरण, ६ पंडित मरण,
णाम मेरा स्वरूप नही है। भय तो चारित्र मोह का ७पासन्न मरण, बाल पडित मरण, ६ ससल्ल मरण,
परिणाम है। प्रतएव उपाधिक भाव है । सम्यग्दृष्टि सप्त १० बल मरण, ११ वोमट्ट मरण १२ विप्पाणस मरण,
भयो से रहित निर्भय होता है। वह निशंक रहता है। १३ गिद्ध पृट्टमरण, १४ भत्तपच्चक्खाण मरण, १५ परउप- उसे ससार की कोई शक्ति पात्मा के अमरत्व से विचसग्ग मरण, १६ इगिणी मरण और १७ केवलि मरण। लित नही कर सकती। ज्ञानी इसी भाव में सुदढ रहकर
वामांग और अपने जीवन को भौतिक उलझनों से दूर रखता है, यही उत्तराध्ययन नियुक्ति मे भी पाये जाते है। जिनमे कुछ उसके विवेक की महत्ता है। यदि साधक का प्रात्मा के नामो का शाब्दिक अन्तर भी पाया जाता है जो प्रायः ।
Him अमरत्व में विश्वास न हो, तो उसका उक्त परिश्रम निष्फल नगण्य-सा है। इन मरणो का विस्तृत विवेचन भगवती हा है। पाराधना और विजयोदया और मूलाराधना टीकामो में शरीर को नश्वरता : भी पाया जाता है। मरणों के इन १७ भेदों में तीन मरण शरीर नाशवान है । वह पुदगल के परमाणु-पुंजों से ही प्रशसा के योग्य बतलाये हैं। पंडित पडित मरण, पडित निर्मित हुमा है। वे सब परमाणु जड़ रूप है। इसी से मरण प्रौर बाल पडित मरण । इनमे चौदहवें गुणस्थान- शरीर गल-सड़ जाता है और कभी पूरण हो जाता है । वर्ती प्रयोग केवली का निर्वाण पंडित पडित मरण है। जब तक शरीरादि परपदार्थों मे राग की एक कणि का त्रयोदश प्रकार चारित्र के धारक मुनियों का मरण पंडित भी मौजूद रहती है तब तक ही उससे ममता रहती है। मरण है और देशव्रती श्रावक का मरण बाल पडित मरण प्रौर जब नारीर को
और जब शरीर को जड़ स्वभाव, विनश्वर और प्रनात्मीय है । अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बाल मरण और मिथ्या- जान लिया जाता है
जान लिया जाता है, उस समय उसमे से अपनत्व बुद्धि दृष्टि का मरण बाल-बाल मरण है।
विनष्ट हो जाती है। उसके दूर होते ही प्रात्मा की १. सल्लेहणाए मूल जो बच्चइ तिब्व-भत्ति राएण।
स्थिति बाह्य पदार्थों से हटकर अन्तर की पोर चली भोत्तूण य देव-सुख सो पावदि उत्तम ठाणं ।।
जाती है, उस समय बड़ पदार्थों की विनाशक्रिया से -भगवती मा. गाथा ६८१ पडिद पाद मरण खीण कसाया मरति केबलिणा। २. पब्दि-पंडित मरण च पडिद बालपडिद चेव ।
विरवा विरदा जीवा परप्ति तदियेण मरणेण ।। एदाणि तिण्णि मरणाणि जिणा णिच्च पस सति ।
-भग०मा० गा०२७, २८