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________________ २३४, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त नयभव्य रचनायों ने जन वाङमय के भण्डार की उन मावश्यक सेवामों से बचे समय और शक्ति का ही अभिवद्धि की है। डा. हरीन्द्रभूषण जी उज्जैन के निर्द- उत्सर्ग वे समाज, साहित्य और संगठन में करते हैं। प्रतः शन में दो विद्वानों ने जैन-विद्या पर पी-एच०डी० की है। हमें अपनी परिधि के भीतर पागामी कार्यक्रम तय करना हमें प्राशा है जैन विद्या और जैन वाङ्मय के प्रादर का चाहिए । क्षेत्र उत्तरोत्तर बढ़ता जायेगा। हमारा विचार है कि परिषद् को निम्न तीन कार्य जैन शिक्षण-संस्थाएँ: हाथ मे लेकर उन्हें सफल बनाना चाहिए। माज से पचास वर्ष पूर्व एकाध ही शिक्षण संस्था यो। १. जैन विद्या-फण्ड की स्थापना । गुरु गोपालदास जी वरैया और पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी २. भगवान् महावीर की २५००ी निर्वाण शती पर सेमिनार।। वर्णी के धारावाही प्रयत्नों से सौ से भी अधिक शिक्षण ३. ग्रन्थ-प्रकाशन। संस्थानों की स्थापना हुई। मोरेना थिद्यालय भौर काशी का स्याद्वाद महाविद्यालय उन्हीं में से हैं। मोरेना से जहाँ १. पूज्य वर्णी जी के साभापत्य में सन् १९४८ में प्रारम्भ में सिद्धान्त के उच्च विद्वान तैयार हए वहाँ काशी परिषद् ने एक केन्द्रीय छात्रवृत्ति-फण्ड स्थापित करने का Pam ता तोहरा ही प्रस्ताव किया था, जहां तक हमें ज्ञात है, इस प्रस्ताव को अंग्रेजी के भी विद्वान् निकले हैं। यह गर्व की बात है कि क्रियात्मक रूप नहीं मिल सका है। माज इस प्रकार के प्राज समाज में जो वहुसंख्यक उच्च विद्वान हैं वे इसी फण्ड की मावश्यकता है । प्रस्तावित फण्ड को 'म विद्याविद्यालय की देन हैं। वस्तुतः इसका श्रेय प्राचार्य गुरुवर्य फण्ड' जसा नाम देकर उसे चालू किया जाय। यह फण्ड १० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री को है, जो विद्यालय के पर्याय- कम-से-कम एक लाख रुपये का होना चाहिए। इस फण्ड वाची माने जाते है। सागर के गणेश विद्यालय की भी से (क) मार्थिक स्थिति से कमजोर विद्वानों के बच्चों को समाज को कम देन नहीं है। इसने सैकड़ों बुझते दीपकों सम्भव वृत्ति दी जाय । (ख) उन योग्य शोधानियों को में तेल पौर बत्ती देकर उन्हें प्रज्वलित किया। भी वृति दी जाय, जो जैन-विद्या के किसी प्रकार किसी पर प्राज ये शिक्षण-संस्थाएँ प्राणहीन-सी हो रही हैं। विश्वविद्यालय मे शोधकार्य करें। (ग) शोधार्थी के शोधइसका कारण मुख्यतया माथिक है। यहां से निकले विद्वानों 'प्रबन्ध के टडुन या शुल्क या दोनों के लिए सम्भव मात्रा की खपत समाज में प्रब नहीं के बराबर है और है भी.तो में प्राधिक साहाय्य किया जाय।. .. उन्हें श्रुतसेवा का पुरस्कार प्रल्प दिया जाता है। अतः ..... . २. भगवान महावीर की २५००वीं निर्भण-सती छात्र, अब समाज के बाजार में उनकी खपत कमोनो सारे भारतवर्ष में व्यापक पैमाने पर मनायी जायगी। दूसरे बाजारों को टटोखने लगे हैं मोर उनमें उनका मालः . उसमें विद्वत्परिषद् के सदस्य व्यक्तिशः योगदान करेंगे ही, ऊँचे दामों पर उठने लगा है। इससे विद्वानों का ह्रास “परिषद् मी एक सांथ' पनेक स्थानों पर अथवा मिन्नहोने लगा है। फलतः समाज भोर संस्कृति को जो क्षति भिन्न समयों में अनेक विश्वविद्यालयों में सेमिनारों (संगोपहुँचेगी, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। प्रतः ष्ठियों) का प्रायोजन करे। इन सेमिनारों में जैन एवं समाज के नेतामों को इस दिशा में गम्भीरता से विचार जनेतर विद्वानों द्वारा जैन विद्या की एक निर्णीत विषया. करना चाहिए। यदि तत्परता से तुरन्त विचार न मा वलि पर शोषपूर्ण निबन्ध-पाठ कराये जायें। इन सेमितो निश्चय हमारी हजारों वर्षों की .संस्कृति और तत्व- मारों का माज प्रपना महत्व है और उनमें विज्ञान रुचिशान की रक्षा के लिए संकट की स्थिति मा सकती है। पूर्वक भाग लेंगे। विद्वत्परिषद्का भावी कार्यक्रम : : ३. पागामी तीन वर्षों की अवधि के लिए एक अन्धवित्परिषद् के साधन सीमित हैं और उसके चालक प्रकाशन की योजना बनायी जाय। इस योजना के अन्तर्गत अपने-अपने स्थानों पर रहकर दूसरी सेवापों में संलग्न हैं। तीर्थकर महावीरवन्धका तो प्रकाशन हो ही, उसके
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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