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________________ डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण २३३ शासन जब स्वयं स्याद्वादमय है, तो उसमे प्रतिपादित भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला। इस ग्रन्थमाला मात्मस्वरूप स्याद्वादात्मक होना ही चाहिए। इस तरह से सिद्धिविनिश्चय जैसे अनेक दुर्लभ ग्रन्थ सामने आये है दोनो नयो से तत्त्व को समझने और प्रतिपादन करने से ही और पा रहे है । इसका श्रेय जहाँ स्व० ५० महेन्द्रकुमार तत्त्वोपलब्धि एव स्वात्मोपलब्धि प्राप्य है । जी, ५० कैलाशचन्द्र जी, प० फूलचन्द्र जी, प० हीरालाल साहित्यिक प्रवृत्तियां और उपलब्धियां : जी आदि उच्च बिद्वानो को प्राप्त है वहाँ ज्ञानपीठ के अाज से पचास वर्ष पूर्व जैन साहित्य सब को सुलभ । सस्थापक साहू शान्तिप्रसाद जी और अध्यक्षा श्रीमती रमारानी जी को भी है । उल्लेख्य है कि श्री जिनेन्द्र वर्णी नही था । इसका कारण जो भी रहा हो। यहाँ साम्प्रदायिकता के उन्माद ने कम उत्पात नही किया । उसने बहु द्वारा सकलित-सम्पादित जनेन्द्र-सिद्धान्त कोष (२ भाग) मूल्य सहस्रों ग्रन्थो की होली खेली है। उन्हे जलाकर पानी का प्रकाशन भी स्वागत योग्य है। इस प्रकार पिछले गरम किया गया है और समुद्रों एव तालाबों में उन्हे डुबो पचास वर्षों मे साहित्यिक प्रवृत्तिया उत्तरोत्तर बढ़ती गई दिया गया है। सम्भव है उक्त भय से हमारे पूर्वजो ने हैं, जिसके फलस्वरूप बहुत-सा जैन वाङ्मय सुलभ एवं बचे खुचे वाङ्मय को निधि की तरह छिपाया हो या उपलब्ध हा सका ह स हाथ पकड़ने पर प्रविनय का उन्हें भय रहा हो। इधर डा० नेमिचन्द्र जी शास्त्री विद्यादान और प्रकाशन के साधन उपलब्ध होने पर सम्भवतः उसी भय साहित्य सजन मे जो असाधारण योगदान कर रहे है वह के कारण उन्होने छापे का भी विरोध किया जान पड़ता मक्तकण्ठ से स्तुत्य है। लगभग डेढ़ दर्जन शोधार्थी विद्वान् है। परन्तु युग के साथ चलना भी प्रावश्यक होता है। आपके निर्देशन मे जैन विद्या के विभिन्न अङ्गों पर पीमतएव कितने ही दूरदर्शी समाज-सेवको ने उस विरोध एच.डी. कर चुके है और लगातार क्रम जारी है। का सामना करके भी ग्रन्थ-प्रकाशन का भी कार्य किया। भारतीय ज्योतिष, लोकविजय-यत्र, प्रादिपुराण मे प्रतिफलतः प्राज जैन वाङ्मय के हजारो ग्रन्थ प्रकाशन मे आ पादित भारत, सस्कृत-काव्य के विकास मे जैन कवियो का गये है। षट्खण्डागम, कषायप्राभत, धवला-जयघवलादि योगदान जैसे अनेक ग्रन्थ-रत्न प्रापकी रत्नगर्भा सरस्वती टीकाएँ जैसे सिद्धान्त ग्रन्थ भी छप गये है और जन- ने प्रसत किये हैं। पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य की सामान्य भी उनसे ज्ञानलाभ ले रहा है। इस दिशा में भारती ने तो भारत के प्रथम नागरिक सर्वोच्च पदासीन श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द जैन-साहित्योद्धारक राष्टपति श्री वराह वेकटगिरि तक को प्रभावित कर फण्ड द्वारा डाक्टर हीरालाल जी, उनके सहयोगी पं. उन्हें राष्टपति-सम्मान दिलाया और भारतीय वाङ्मय फूलचन्द्र जी शास्त्री, पं० हीरालाल जी शास्त्री सौर पं० को समद्ध बनाया है। प्रादिपुराण, हरिव शपुराण, पद्मबालचन्द्र जी शास्त्री के सम्पादन-प्रनुवादादि के साथ षट्- पुराण, उत्तरपुराण, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धर चम्पू, पुरुखण्डागम के १६ भागों का प्रकाशन उल्लेखनीय है। सेठ देव चम्प. तत्त्वार्थसार, समयसार, रलकरण्डक श्रावका. माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला से स्वर्गीय पं. नाथूराम जी चार मादि अर्धशती ग्रन्थ-राशि प्रापके द्वारा अनूदित एव प्रेमी ने कितने ही वाङ्मय का प्रकाशन कर उद्धार किया सम्पादित हुई है। डा. देवेन्द्र कुमार जी रायपुर का है । जीवराज ग्रन्थमाला से डाक्टर ए० एन० उपाध्ये ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियां, डा. तिलोयएण्णत्ती यादि अनेक ग्रन्थों को प्रकाशित कराया है। हीरालाल जी जैन का 'णायकुमारचरिउ', डा. ए. एन. स्व० ५० जुगलकिशोर मुख्तार के वीर-सेवा-मन्दिर दिल्ली उपाध्ये का गीत बीतराग, प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का भोर वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट वाराणसी से कई महत्त्व के नयचक्र', पं० ममतलाल जी शास्त्री का 'चन्द्रप्रभचरित', ग्रन्थ प्रकट हुए है। श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रंथमाला का डा. कस्तूरचन्द्र जी कासलीवाल का 'राजस्थान के जैन योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नही है। जिस प्रकाशन- सन्त : कृतित्व और व्यक्तित्व', श्री श्रीचन्द्र जी जैन संस्था से सर्वाधिक जैन वाङ्मय का प्रकाशन हुमा, वह है उब्जैन का 'जैन कथानको का सांस्कृतिक अध्ययन' मादि
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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