SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२, वर्ष २५, कि०६ अनेकाति विवेचन 'षट्खण्डागम' मे प्राचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने 'उभयनय के विरोध को दूर करने वाले 'स्यात्' पद मौर कषायप्राभूत' में प्राचार्य गुणघर ने किया है । तथा से अङ्कित जिमशासन में जो ज्ञानी स्वयं निष्ठ हैं वे अनव इन्हीं के माधार से गोम्मटसारादि ग्रन्थ रचे गये हैं। -नवीन नहीं, एकान्त पक्ष से प्रखण्डित पौर अत्यन्त धर्म का प्राधार मुमुक्षु और सद्गृहस्थ दोनों है तथा उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप समयसार को शीघ्र देख (पा) हीं सद्गृहस्थों के लिए संस्कृति और तत्वज्ञान प्रावश्यक है। लेते हैं।' और इन दोनों की स्थिति के लिए वाङ्मय, तीर्थ, मन्दिर, अमृतचन्द्र से तीन लो वर्ष पूर्व भट्ट प्रकलङ्कदेव ने मूर्तियां, कला, पुरातत्त्व और इतिहास अनिवार्य है। इनके ऋषभ प्रादि को लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकरों विना समाज की कल्पना और समाज के बिना धर्म की को धर्मतीर्थकर्ता और स्याद्वादी कहकर उन्हें विनम्रभाव स्थिति सम्भव ही नहीं। मुमुक्षुधर्म भी गृहस्थधर्म पर से नमस्कार किया तथा उससे स्वात्मोपलब्धि की भभिउसी प्रकार प्राधारित है जिस प्रकार खम्भों पर प्रासाद लाषा की है। जैसा कि भाषण के प्रारम्भ में किये गये निर्भर है। मुमुक्षु को मुमुक्षु तक पहुँचाने के लिए भारम्भ मङ्गलाचरण से, जो उन्ही के लघीयस्त्रय का मङ्गलश्लोक मे दर्शन-शास्त्र का विमर्श प्रावश्यक है। उसके बिना है, स्पष्ट है। इससे हम सहज ही जान सकते हैं कि उसकी नींव मजबूत नही हो सकती। यह भी हमें नहीं स्यावाद तीर्थंकर-वाणी है-उन्ही की वह देन है। वह भूलना है कि लक्ष्य को समझने और पाने के लिए उसकी किसी प्राचार्य या विद्वान् का प्राविष्कार नहीं है। वह मोर ध्यान और प्रवृत्ति रखना नितान्त प्रावश्यक है। एक तथ्य और सस्य है, जिसे इंकारा नहीं जा सकता। दर्शन-शास्त्र को तो सहस्रों बार ही नहीं, कोटि-कोटि बार निश्चयनय से पात्मा का प्रतिपादन करते समय उस परभी पढा सुना है फिर भी लक्ष्य को नहीं पा पाये। तात्पर्य द्रव्य का भी विश्लेषण करना प्रावश्यक है, जिससे उसे यह है कि दर्शन-शास्त्र और अध्यात्म शास्त्र दोनों का मुक्त करना है । यदि बद्ध पर द्रव्य का विवेचन, जो षट्चिन्तन जीवन शुद्धि के लिए परमावश्यक है। इनमे से खण्डागमादि मागम ग्रन्थों में उपलब्ध है, न किया जाय एक की भी उपेक्षा करने पर हमारी वही क्षति होगी. भोर केवल प्रात्मा का ही कथन किया जाय, तो जनजिसे प्राचार्य अमृतचन्द्र ने निम्न गाथा के उद्धरणपूर्वक दशन कर दर्शन के प्रात्म-प्रतिपादन में और उपनिषदों के प्रात्मबतलाया है प्रतिपादन में कोई अन्तर नहीं रहेगा। जह जिणमयं पवजह तो मा ववहार-णिच्छए मुयह । एक बार न्यायालङ्कार पं० वंशीधर जी ने कहा था एक्केण विणा छिज्जा तित्वं प्रणेण उण तमचं॥ कि एक वेदान्ती विद्वान् ने गुरुजी से प्रश्न किया था कि -प्रात्मख्याति, स० सा०, गा०१२ पापके मध्यात्म मे और वेदान्त के अध्यात्म में कोई अन्तर 'यदि जिन-शासन की स्थिति चाहते हो, तो व्यवहार नहीं है ? युरुजी ने उत्तर दिया था कि जैन दर्शन में पौर निश्चय दोनो को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के प्रात्मा को सदा शुद्ध नहीं माना, संसारावस्था मे प्रशद्ध छोड़ देने पर धर्मतीर्थ का पौर निश्चय के छोड़ने से तत्त्व पौर मुक्तावस्था में शुद्ध दोनों माना गया है। पर वेदान्त (मध्यात्म) का विनाश हो जायेगा।' में उसे सदा शुद्ध स्वीकार किया है। जिस माया की उस यह सार्थ चेतावनी ध्यातव्य है । पर छाया है वह मिथ्या है। लेकिन जैन दर्शन में प्रात्मा स्वामी प्रमतचन्द्र ने उभयनय के विरोध मे ही जिस पुद्गल से बद्ध, एतावता अशुद्ध है वह एक वास्तसमयसार की उपलब्धि का निर्देश किया है विक द्रव्य है। इससे संयुक्त होने से प्रात्मा में विजातीय उभयनविरोषध्वंसिनि स्यात्पदा परिणमन होता है । यह विजातीय परिणमन ही उसकी जिनपचसि रमन्ते वे स्वयं वान्तमोहाः । अशुद्धि है। इस प्रशुद्धि का जैन दर्शन मे विस्तार से सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे विवेचन है । उससे मुक्त होने के लिए ही सबर, निर्जरा रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ आदि तत्त्वों का विवेचन है। तात्पर्य यह है कि जिन
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy