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________________ डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण २२९ पुरस्कार की योजना और अंग्रेजी तथा संस्कृत दोनों वर्षों मे हुए, सांस्कृतिक कार्यों की एक गौरवपूर्ण लम्बी भाषाओं के ज्ञातानों को सदस्य बनाने के प्रस्ताव पारित श्रृंखला है, जिन पर हमें गर्व है और जिनका उल्लेख इस किए गए थे। प्रसन्नता की बात है कि ये तीनों प्रस्ताव रजत-जयन्ती के उत्सव पर अावश्यक होने से किया क्रियात्मक रूप पा चुके है । वरया स्मृतिग्रन्थ का प्रकाशन गया है। तो इतना सुरूप और प्राकर्षक हुमा कि सब ओर से विद्वान और समाज : . उसका समादर हुआ है और दिल्ली मे मनायी गयी गुरुजी विद्वान समाज का विशिष्ट प्रङ्ग है। शरीर में जो की जन्म-शताब्दी चिरस्मरणीय रहेगी। पुरस्कार-योजना स्थान शिर (उत्तमाङ्ग) का है वही समाज में विद्वान् के अन्तर्गत चार विद्वान् और उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ (जानवान) का है। यदि शरीर में शिर न हो या रुग्ण पुरस्कृत हो चुकी है। पांचवे विद्वान् को उनकी सर्वश्रेष्ठ हो तो शरीर शरीर न रहकर घड़ हो जायेगा या उससे कृति पर इसी रजत जयन्ती अधिवेशन में पुरस्कृत किया सार्थक जीवन-क्रिया नहीं हो सकेगी। सारे शरीर की जा रहा है। इस योजना को मूर्त रूप देने का श्रेय शोभा भी शिर से ही है । प्रतः शिर मौर उसके उपाङ्गों श्रावकशिरोमणि, दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी जैन मोर मांख, कान, नाक प्रादि की रक्षा एवं चिन्ता सदा की उनकी धर्मपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती रमारानी जी जाती है। विद्वान समाज के धर्म, दशन, इतिहास मार मध्यक्षा भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली को है। उन्हीं के प्रकल्प श्रत का निर्माण एवं संरक्षण करके उसे तथा उसका मौदार्य से यह योजना सफल हो सकी है। संस्कृति को सप्राण रखता है। यदि विद्वान् न हो वा वह १९६८ में सागर (म.प्र.) में हए ग्यारहवें अधि- चिन्ताग्रस्त हो तो स्वस्थ समाज मोर उसकी उच्च वेशन को कई उपलब्धियाँ है। प्रस्ताव नं. ३ के द्वारा संस्कृति की कल्पना ही नही की जा सकती है। पर जन पुरातत्त्व के संरक्षण और प्रकाशन का संकल्प लेते दुर्भाग्य से इस तथ्य को समझा नहीं जाता। यही कारण हुए उसे क्रियात्मक रूप देने के लिए दि० जैन अतिशय है कि समाज में विद्वान् की स्थिति चिन्तनीय और दयक्षेत्रों मोर सिद्ध क्षेत्रों व वहां की प्रामाणिक सामग्री का नीय है। किसी विद्यालय या पाठशाला के लिए विद्वान् सचित्र विवरण प्रकाशित करने का निश्चय किया गया की पावश्यकता होने पर उमसे व्यवसाय की मनोवृत्ति से था। प्रसन्नता की बात है कि यह कार्य भारतीय ज्ञानपीठ वात की जाती है। संस्था-सचालक उसे कम-से-कम देकर द्वारा द्रुतगति से हो रहा है। इसी अधिवेशन में प्रस्ताव अधिक-से-अधिक काम लेना चाहता है। कुछ महीने पूर्व न०५ के द्वारा भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणो- एक सस्था-सचालक महानुभाव ने हमे विद्वान् के लिए त्सव के अवसर पर २५०० पृष्ठों की सांस्कृतिक सामग्री के उसकी वाछनीय योग्यतामों का उल्लेख करते हुए लिखा। प्रकाशन का भी निश्चय किया गया था। इसके लिए बनाई हमने उन्हें उत्तर दिया कि यदि उक्त योग्यता सम्पन्न गई उपसमिति के प्रधान लेखक सहद्वर डा० नेमिचन्द्रजी विद्वान के लिए कम-से-कम तीन सौ रुपए मासिक दिया शास्त्री ने 'तीर्थंकर महावीर' नाम से उक्त सामग्री को जा सके तो विद्वान् भेज देंगे। परन्तु उन्होंने तीन सो तैयार कर पुस्तक का रूप भी दे दिया है, जो शीघ्र ही रुपए मासिक देना स्वीकार नहीं किया। फलतः वही प्रेस को दे दी जावेगी। विद्वान् छह सौ रुपए मासिक पर अन्यत्र चला गया। ____ विद्वत्परिषद् के विगत अधिवेशनों के महत्त्वपूर्ण एवं कहा जाता है कि विद्वान् नहीं मिलते। विचारणीय है कि उल्लेखनीय कतिपय कार्यों का यह सक्षिप्त विहङ्गावलो. जो किसी धार्मिक शिक्षण संस्था में दश वर्ष धर्म-दर्शन का कन है। इनके अलावा शङ्का-समाधान, तत्त्वगोष्ठियां, शिक्षण लेकर विद्वान् बने और बाद में उसे उसकी श्रुतशिक्षण-शिविर, शिक्षा-सम्मेलन, श्रुत-सप्ताह जैसे अन्य सेवा के उपलक्ष्य मे सौ-डेढ़ सौ रुपए मासिक सेवा-पारिकार्य भी विद्वत्परिषद् द्वारा सम्पन्न हुए हैं। इससे स्पष्ट श्रमिक दिया जाय तो वह माज के समय में उससे कैसे है कि विद्वत्परिषद् के, जन्म से लेकर अब तक गत २७ निर्वाह करेगा। काश ! वह सद्गृहस्थ हो और दो-बार
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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