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२२८, वर्ष २५, कि.६
अनेकान्त
जैन मान्यतामों के प्रतिकूल थीं। इन दो कारणों से वहाँ पर विचार करके उसका-रंग केशरिया प्राकार प्रायतएकत्रित नये-पुराने सभी विद्वानों ने एक स्वर से अनुभव चतुरस्र और प्रतीक लाल रंग से लिखा हुमा स्वस्तिककिया कि दिगम्बर जैन सिद्धान्तों के संरक्षण और विद्वानों निर्धारण किया गया था। में परस्पर सौहाई एवं ऐक्य स्थापन के लिए उनका एक छठे अधिवेशन में, जो १९५३ में खुरई (म०प्र०) में संगठन होना आवश्यक है। फलतः ज्ञान वृद्ध एवं वयोवृद्ध हुआ था, पारित प्रस्ताव न० ६ के द्वारा महर्षि कुन्दकुन्द, स्वर्गीय प० श्रीलाल जी पाटनी मलीगढ़ को अध्यक्षता में गृध्रपिच्छ, समन्तभद्र जैसे महानाचार्यों की कृतियों को 'अखिल भारतीय वि० जैन विद्वत्परिषद' की स्थापना की काट-छांटकर उन्हे भ्रष्ट रूप में छपाने की मुनि क्षीरगयी। उल्लेखनीय है कि परिषद् का शुभारम्भ कलकत्ता सागर जी की प्रवृत्ति पर क्षोभ प्रकट करते हुए समाज से में ही जैन भवन में माहूत उस बैठक से हुमा, जो महो- इस प्रकार के साहित्य का प्रकाशन न करने के लिए अनुत्सव में पधारे उक्त भाषणकर्ता के साथ उनकी स्थापनामों रोष किया गया था। इस प्रस्ताव का समाज पर सार्थक पर चर्चा करने के लिए भायोजित की गयी थी। उप- प्रभाव पड़ा था। स्थित विद्वानों में प्रपूर्व उत्साह एवं उल्लास देखा गया द्रोणगिरि (म.प्र.) में १९५५ में हुए सातवें प्रधिथा और सभी ने परिषद् की सार्थकता तथा मावश्यकता वेशन में सम्मिलित रथों को चलाने वालों के लिए सिंघई को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया था।
या सेठ पदवी देने पर रोक लगायी गयी थी, जिसके फलइसका प्रथम अधिवेशन सन् १९४५ में कटनी में स्वरूप वहाँ रथ चलाने वालों को कोई पद प्रदान नहीं हमा था, जिसमें जैन संस्कृति के संरक्षण तथा जैनधर्म के किया गया था। सम्यग्ज्ञान हेतु प्रात्मसमर्पक सुयोग्य विद्वानों का एक पाठवा अधिवेशन सन् १९५८ में थी मढ़ियाजी'वीर-संघ' बनाने का निश्चय हुआ था ।
जबलपुर (म.प्र.) में सम्पन्न हुअा था। इस अधिवेशन दुसरा अधिवेशन सन् १९४६ में मथुरा में किया मे नूतन मन्दिरों और मूर्तियों की अनावश्यक निर्माण गया। इस अधिवेशन में जैन साहित्य और इतिहास प्रवृत्ति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए समाज से पुराने से अपरिचित लेखकों के गलत उस्लेखों एवं भूलों-भ्रान्तियों मन्दिरों-मूर्तियों की रक्षा तथा जीर्णोद्धार मे द्रव्य का उपका निरास करने के लिए एक विभाग की स्थापना का योग करने का अनुरोध किया गया था। साथ ही ज्ञाननिर्णय हुआ था।
दान, शास्त्र-प्रकाशन मादि उपयोगी पुण्यकार्यों में द्रव्य को तीसरा अधिवेशन सन् १९४७ मे सोनगढ़ (सौराष्ट्र) लगाने की प्रेरणा की गयी थी। मे हुमा था। इसमें तत्कालीन चर्चा के विषय जीवट्ठाण नववें अधिवेशन में, जो ललितपुर (उ० प्र०) में संतपरूवणा के ९३वे सूत्र में 'संजब' पद के पौचित्य- हमा था, त्यागी-व्रतियों से धनसंग्रह की प्रवृत्ति से दूर निर्णयार्थ विद्वत्सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया, जो रहने का अनुरोध, बेदिकाशुद्धि प्रादि धार्मिक क्रियामों की उसी वर्ष सागर में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुमा था। एक प्रामाणिक पुस्तक के निर्माण भौर परिषद् के रजिस्ट्रे. ___ चौथे अधिवेशन की, जो सन् १९४८ में बरवासागर शन का निश्चय किया था। परिषद् के सुयोग्य एवं कर्मठ (झांसी) में बुलाया गया था, उपलब्धि केन्द्रीय छात्रवृत्ति मंत्री पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा स्वयं उक्त फण्ड स्थापित करने का निश्चय की है, जिससे विदेशों में पुस्तक निर्मित होकर दो बार श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन जाकर शिक्षा लेने वाले और वहाँ जैनधर्म का प्रचार प्रस्थमाला से प्रकाशित हो गयी। परिषद् का रजिस्ट्रेशन करने वाले प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति दी जा भी मध्यप्रदेश शासन से गत १९७० में हो चुका है। सके।
दशम अधिवेशन १६६५ में सिवनी में हुआ था। इस पांचवा अधिवेशन सोलापुर (महाराष्ट्र) में १९४६ में अधिवेशन में गुरु गोपालदास वरैया स्मृति-ग्रन्थ की योजना, किया गया था। इस अधिवेशन में जैन झ3 के स्वरूप मौलिक या सम्पादित कृति पर एक हजार रुपए के