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अनेकान्त
१४६२५, ०४
करेंगे, जिनमें सम्प्रति सिहासन ही प्रवशिष्ट हैं। पहले सिहासन (नं० खी १११, २२-५६.६ इच) के इञ्च मध्य में चतुर्भुज देवी की ललितासन मुद्रा में मुद्रासन पर पासीन मूर्ति अवस्थित है, जिनकी पहचान जैन संघ के प्रसार या संरक्षक देवी शान्ति से की जा सकती है। देवी ने ऊपरी भुजाभों में सनाल पद्म धारण किया है, जब कि निचली दाहिनी व बायों में क्रमशः वरदमुद्रा व फल (मातुलिंग) प्रदर्शित है। देवी दोनों प्रोर दो भ्रघं स्तम्भों से है। देवी के दोनों पादयों में दो गज मौर सिंहों को उत्कीर्ण किया गया है। सिहासन के प्रतीक दो सिंह एक-दूसरे की घोर पीठ किये सामने की भोर देखते हुए चित्रित किये गये हैं। सिहासन के प्रत्येक कोने पर एक हाथ जोड़े उपासक प्राकृति को मूर्तिगत किया गया । है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दोनों छोरों पर उत्कीर्ण पक्ष-पक्षी प्राकृतियाँ सम्प्रति नष्ट हो गई हैं। पीठिका के मध्य देवी प्राकृति के नीचे दो हिरनों से वेष्टित धर्मचक उत्कीर्ण है प्रस्तुत मूर्ति में लांघन के प्रभाव में तीर्थ कर की पहचान सम्भव नहीं है । दूसरा सिंहासन ( बिना न० के) काफी भग्नावस्था में स्थित है और प्राकृतियों की निती व योजना में उपर्युक्त सिंहासन के समान है। इस उदाहरण में यक्ष-पक्षी प्राकृतियों को भी सिहासन के दोनों छोरों पर पंकित किया गया है। दाहिनी मोर ललितासन मुद्रा में उत्कीर्णतु न्दीली चतुर्भुज यक्ष प्राकृति सर्वानुभूति का चित्रण करती है। यक्ष की ऊपरी दाहिनी व बायीं भुजाओं मे कमवा धकुश (काफी भरण) व पाया स्थित है, जबकि निचली दाहिनी व बाबी भुजा में क्रमश: वरद मुद्रा और धन का पैसा प्रदर्शित है। बायीं घोर की ललितासन मुदा में उत्कीर्ण द्विभुज पक्षी प्राकृति निश्चित ही अम्बिका का अंकन करती है। देवी की दाहिनी भुजा की वस्तु स्पष्ट है घोर बावों से गोद में बैठे बालक को सहारा दे रही है। यक्ष सर्वानुभूति भोर यक्षी मम्बिका के चित्रण के प्राधार पर यह सम्भा वना व्यक्त की जा सकती है कि मूर्ति तीर्थंकर नेमिनाथ की रही होगी, पर यह बिलकुल जरूरी नहीं है, क्योंकि समकालीन मूर्तियों में ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य समस्त तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी
रूप में सर्वानुभूति और अम्बिका का ही चित्रण सर्वत्र, विशेष कर पश्चिम भारत में प्राप्त होता है। सांछन अतः के प्रभाव में मूर्ति की निश्चित पहचान संभव नहीं है । तीसरा सिहासन ( नं० सी १२०, २०.५ इंच X १२ इंच) जिस पर यक्षी के रूप में चक्रेश्वरी का प्रङ्कन उपलब्ध होता हैं, के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मूर्ति सदैव उन्हीं से सम्बद्ध रूप में प्राप्त होता है। सिहासन के बायें कोने पर चतुभुज चक्रेश्वरी को सावन मुद्रा में उत्कीर्ण किया गया है। देवी के दोनों ऊपरी हाथों में चक्र स्थित है और निचली दाहिनी से अभय मुद्रा प्रदर्शित है। देवी की निचली वाम भुजा खण्डित है। सिहासन के दाहिनी घोर उत्कीर्ण पक्ष प्राकृति सिंहासन के द्योतक सिंह व गज प्राकृतियों के साथ खण्डित है। सिंहासन के मध्य में पूर्ववत् चतुर्भुज शांति देवी प्रदर्शित है, पर पूर्व वित्रण के विपरीत इसमे देवी ने अपनी निचली वाम भुजा में फल के स्थान पर कर्मउलु पारण किया है। बायी ओर की गज सिंह मा तियां भी काफी भग्न हैं। सिंहासन के मध्य की देवी की प्राकृति के नीचे पूर्ववत् दो हिरनों से वेष्टित धर्मचक्र चित्रित है।
इन सहित सिहासनों के अतिरिक्त दो विषयो में मात्र ऊपरी परिकर का भाग हो भवशिष्ट है, जिनमें से एक की पहचान (सी- २३८, २२ इन्च X २५ इन्च ) मस्तक के ऊपर प्रदर्शित सप्त फणों के घटाटोपों के प्राधार पर निश्चित की जा सकती है। सभी फण काफी भग्न है पर उनकी संख्या सात होनी निश्चित है। तीर्थकर के स्कन्धों के ऊपर प्रत्येक भाग में एक उड्डायमान मालाधर युगल उत्कीर्ण है, जिनके ऊपर दो प्राकृतियों के साथ मज प्राकृति को मूर्तिगत किया गया है। पाना के मस्तक के ऊपर के उत्कीर्ण त्रिछत्र के ऊपर की प्राकृति काफी भग्न है और त्रिछत्र के दोनों मोर पुनः दो उड्डायमान प्राकृतियों, जिनके मस्तक खण्डित हैं, को उत्कीर्ण किया गया है । दूसरा परिकर ( नं० सी० २३५, १५ इन्च X २१ इन्च) भी लगभग समान विवरणों वाला है पर इसमें सर्प फणों के घटाटोपों का प्रभाव है। इसमें प्रत्येक उडायमान मालावर युगलों के पार्श्व में एक संगीतज्ञ की