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चन्द्रावती का जैन पुरातत्व
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पाति को भी प्रतिगत किया गया है। दाहिने पोर की समान ही तीर्थकर पलंकृत मासन पर ध्यान मदा में प्राकति वेण वादन में रत है। जब कि दूसरी पोर को बैठे हैं । इसमें तीर्थकर की दोनों भुजायें शेष हैं पर बायां माकृति वीणावादन कर रही है यह परिकर भी विभिन्न- घुटना खण्डित है। स्थानों पर काफी भग्न है।
द्विभुज मंविका का स्वतन्त्र चित्रण करने वाली मूर्ति जैन मतियों के अन्तर्गत दो ऐसी मूर्तियां भी प्राती है निश्चित ही उपयुक्त समस्त अंकनों से महत्वपूर्ण है। (चित्र जिनमें तीर्थकर प्राकृतियों को केवल अलंकृत प्रासन पर सं०.१) अम्बिका (बिना नं० के, ६.३ इन्च ४८.६ इच) ध्यान मदा में बैठे उत्कीर्ण किया गया है। इन मूतिया के जांघों के नीचे का भाग खडित होने के बाबजुद उसका के सिंहासन पौर ऊपरी परिकर पूरी तरह नष्ट हो चुके बायाँ मुड़ा पाद प्रवशिष्ट है, जिससे देवी के ललितासन मुद्रा हैं। पहली प्राकृति (सी ७६, ११ इन्च २४ इन्च) में में उत्कीर्ण रहे होने की संपुष्टि होती है। देवी के स्कों तीर्थकर के मासन पर रोजिटी और लाजेन्ज पाकार के के ऊपर प्रत्येक भाग में पाम्रलंबि लटक रही है देवी की प्रलंकरण उत्कीर्ण हैं। तीर्थकर की दोनों भुजाएं भोर दाहिनी भुजा भग्न है और अपनी वाम भुजा से वह गोद मस्तक खण्डित हैं। वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न से पलं. में बैठे बालक को सहारा दे रही है। गोद में प्रदर्शित कृत तीर्थकर के तलवे में चक्र उत्कीर्ण है । मुड़े पैरों के बालक मां का स्तन छू रहा है। करंडमुकुट, हार, स्तनबीच से लटकता पोती का भाग चन्द्रावती के जैन कला हार प्रादि पाभूषणों से सुसज्जित पम्बिका का वाहन के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने की पुष्टि करता सिंह निश्चित ही निचले खडित भाग के साथ नष्ट हो है। दूसरी मूर्ति (सी २६३) में उपर्युक्त चित्रण के गया है।
अपनत्व
मुनि कन्हैयालाल एक कवि बगीचे में जा पहुंचा। वृक्षों व लताओं की शीतल छाया से उसका मानस प्रतिशय प्रीणित होने लगा। इधर-उधर पर्यटन करते हुए सहसा उसकी दृष्टि माली पर पड़ी। वह सविस्मय मुस्कराया और चिन्तन के उन्मुक्त अन्तरिक्ष में विहरण करने लगा।
माली ने भी उसे निहारा। उसकी भाव-भंगिमा देखकर उससे मोन नहीं रहा गया। उसने पूछा-विज्ञवर ! मुस्कराहट किस पर? प्रकृति के ये वरदपुष्प मापके मन में गुदगुदी उत्पन्न कर रहे हैं या मेरे कार्य को देख कर हंस रहे हैं ?
कवि-माली! मेरी हँसी का निमित्त अन्य कोई नहीं, तू ही है। जहाँ एक ओर तू कुछ एक पौधों को काट-छांट कर रहा है, निर्दय बन कर केवी का प्रयोग कर रहा है, वहां दूसरी ओर कुछ पौधे लगा भी रहा है, उनमें पानी सींच रहा है, सार-संभाल कर उन्हें पुष्ट कर रहा है। यह तेरा कैसा व्यवहार! इस भेद बुद्धि के पीछे क्या रहस्य है ! तेरी दृष्टि में सब वृक्ष समान हैं; फिर भी एक पर अपनत्व और अन्य पर परत्व, एक को पुचकारना और एक को ललकारना ! तेरे जैसे संरक्षक के व्यवहार में इस अन्तर का क्या कारण है?
माली- कविवर ! मेरे पूर्वजों ने मुझे यही भली भांति प्रशिक्षण दिया था कि मनुष्य को अपने कर्तव्य पर अटल रहना चाहिए। मेरा प्रतिकदम उसी तत्व को परिपुष्ट करने के निमित्त उठता है : क्योंकि मुझे उद्यान की सुन्दरता को सुरक्षित रखना है। इस उद्यान का प्रतिदिन विकास करना मेरा परम धर्म है; अतः मैं जो कुछ कर रहा हूं, मतभेद बुद्धि से नहीं, अपितु सम बुद्धि से कर रहा हूँ। यह मेरा पक्षपात नहीं, साम्य है। केवल बहिरंग को हीन देखकर मन्तरंग की परतों को भी खोलना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो वहां प्रापको स्पष्ट ज्ञात होगा कि मेरी इस प्रवृत्ति के पीछे प्रत्येक पौधे के साथ मेरा कितना प्रट अपनत्व है।