________________
नयनार मन्दिर
१२१ रहने वाले लोग अपनी अज्ञानता जाहिर करते थे। किन्तु चिन्हो के पीछे रख दी और इसके कुछ ही दिन बाद यदि कोई नैनार मन्दिर के बारे में पूछता था तो फौरन वे पादुका चरण चिन्ह गायब हो गए। इस शरारत के विरुद्ध मदिर की तरफ सकेत कर देते थे। वे मन्दिर को नैनार एक आन्दोलन उठ खडा हा जिससे भयभीत होकर मदिर क्यों कहते थे? इसका एक मात्र कारण यह था कि चरण चिन्होक' कुछ खनिन और परिवर्तित करके १७वीं शताब्दी तक मइलापूर के अधिकाश निवासी नैनार मन्दिर के बाहर हाल में रख दिया गया। इस दशा (जैन) थे। मइलापूर उन दिनो में जैनो का केन्द्र था में चरण चि हाल मे कुछ माल तक रक्ख रहे । इसका उल्लेख प्राचीन थिन्त्तीरत्तु (प्रार्थना-गीता का उमके पश्चात वे फिर गायब हो गए, इस बार उन्ह सग्रह) मे संकलित है और वह मइलापुर पटु कहलाता मन्दिर की दीवार में जड़ दिया गया । है । प्राचीन रचनामों से मालूम पड़ता है कि मइलापुर में
इन सब घटनाप्रो की कहानी लगभग दो दशक करत थ । तामलनाडु म जना पहले लेखक ने बुजूर्गों से सूनी जो मन्दिर के सामने वाले को अब भी नैनार के नामों से पहिचाना जाता है। मकान में रहते थे। उसने इस बात की चर्चा कुछ विद्वानो
जिन जैनों ने दूसरे धर्मों को स्वीकार कर लिया, से की उन्होने इसकी स्वय जांच की और सही पाया। सन् उन्होंने भी नयनार पद को नहीं छोडा । जैसे नल्लीपम के १६४५ में लेखक ने इन चरण चिन्हों का नाम वनग नीरपूशी, वेल्लारस, पनरुति, जिनजी, पारनी, कप्पालर, या एक पम्पलेट मे छपाकर प्रकाशित किया । १९४७ में कलश, पलायम् प्रादि गांवों में नार पद अब तक विरुवल्लुवर की जन्म जयन्ती के अवसर पर इस लेखक प्रचलिन है। दक्षिण भारत के अनेक मुसलमानों में भी ने उस समारोह की अध्यक्षता की पोर इस मन्दिर का नैनार पद का अब भी प्रचलन है। इस बात के पर्याप्त वस्तविका इतिहास जनता को बतलाया और प्रार्थना की प्रमाण है कि जैन धर्म को छोडकर ये लोग मुसलमान कि इसकी प्राचीनता की रक्षा करने की प्राजकल भा। बने हैं । तिन्नेलवेली जिले के कुछ भागों में अब तक अपने प्रावश्यकता है। उसने भारतीय पुरातत्त्व के विद्वानों व । आपको नैनार पिल्लई कहते है । इसके अतिरिक्त तमिल- मन्दिर ले जाकर मन्दिर की दीवाल मे लगे हुए चरण नाडु के बहुत से भागों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण चिन्हों को भी दिखलाया। उन्होने एक वृद्ध महिला से मिलते हैं कि इन स्थानों में जैन बहुसख्या में रहते थे। यह प्रश्न भी किया कि तुम मन्दिर के नाम के बारे में इन ठोस प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कुछ जाननी हो क्या ? उम महिला ने बिना किमी हिचकि थिरुवल्लुवर मन्दिर ही नैनार मन्दिर था । विनाट के उत्तर दिया कि यह एक नैनार मन्दिर था।
यह जानना प्रत्यन्त रुचिकर होगा कि इस मन्दिर में विद्वानो ने इस उत्तर को सुनकर हर्ष प्रकट करते हुए जिन चरण चिन्हों की पूजा की जानी थी उनका क्या कहा तिरुवल्लुवर के नामपर नकली मूर्ति विराजमान हुपा। स्पष्ट ही ये चरण चिन्ह थिरुकुरल रचयिता के किये जाने के बावजूद भी जनता के दिमाग मे अभी तक थे। प्राचीन मइलापूर के जैन जो थिरकूरल के रचयिता नैनार मन्दिर ही है और पवित्र चरण चिन्हो मे कोई के चरण चिन्हो की पूजा किया करते थे, वे उदासीन हो परिवर्तन नहीं किया गया। गये, उनके मन्दिर की मूर्तियां या तो परिवर्तित कर दी प्रतः हमारा पवित्र कर्तव्य है कि हम प्रागे पायें और गई या दबा दी गई। सौ या एक सौ बीस वर्ष पहले थिरुकुरुल के रचयिता के चरण चिन्हों को उनके मूल थिरुकुरल के रचयिता के नाम पर एक छद्म (नकली) स्थान पर विराजमान करें और इस मन्दिर को जनों के मूर्ति का निर्माण किया गया, यह मूर्ति बनाकर चरण अधिकार में दे । वस्तुतः यह जिनका मन्दिर है।
-:
.: