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भाषा की उत्पत्ति विकास
पोहउ मादि जो शब्द दिये हैं वे ठेठ अपभ्रश के है। ११वीं-१२वीं शती में-"कनकामर, जिनदत्तसूरि, वीर, इसमें अपनश के बीजों की झलक प्रवष्य मिलती है। श्रीचन्द्र, यश:कीति और नयनन्दि" के नाम उल्लेखनीय हैं ।
८वी शानी से १२वीं शताब्दी तक अपनश भाषा "कन कामा ने 'कर कुण्डुचरिउ' । जिनदत्त सूरि ने 'चर्चरी', का समय माना जाता है। १३वीं से १४वो तक अपम्रश- उपदेश-रसायन रास और कालस्वरूप कुलक"। वीर ने मिभित हिन्दी का काल है।
'जम्बूस्वामी चरिउ' । नयनन्दि ने 'सुदंसणचरिउ । श्रीचंद्र ८वीं शती में 'स्वयम्भू' अपभ्रंश-भाषा के महाकवि ने 'रत्नकरण्ड-शास्त्र एवं कथाकोश' । श्रीधर ने पासणाह हुए, उन्होंने 'पउमचरिउ' (राम-कथा), रिट्ठणेमिचरिउ चरिउ, भविष्यदत्त चरिउ एवं सुकुमाल चरिउ' प्रादि । (श्रीकृष्ण-कथा), दो महाकाव्य तथा 'पचमी चरिउ' महाकवि 'धवल' भी इसी दाताब्दी की शोभा हैं। (पंचमीव्रतकथा' नामक प्रबन्ध-काव्य लिखा।
१३वीं-१४वीं में-महाकवि अमरकीति ने 'छक्कम्मो. १०वीं में होने वाले कवि देवसेन, पुष्पदन्त, पप- वएस', पं० लाख –'जनदत्त चरिउ' हरिभद्र ने 'णेमिणाह कीति, रामसिंह, धनपाल प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं :- चरित', धाहिल ने 'पउमसिरिचरिउ', नरसेन ने 'वड्ढमाण'देवसेन' ने-'दर्शनसार', 'तत्त्वसार' और 'सावय
कहा' और 'सिरिपाल चरिउ' तथा सिंह ने 'पज्जुण्ण-कहा' धम्म-दोहा' लिखा।
ग्रन्थों की रचना की है। सभी उत्कृष्ट श्रेणी की रच. 'पुष्पदन्त' ने-'महापुराण', 'जसहर चरिउ' एवं नायें है। 'णायकुमार चरिउ' की रचना की।
इसी काल में जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में रचना 'पपकीति' ने-'पासणाह चरिउ' की रचना की।
कार्य प्रारम्भ कर दिया था-श्रीधर्मसूरि का जम्बूस्वामी 'मुनि रामसिंह' ने-'दोहा-पाहुड' रचा।
रास, विनयचन्द्रसूरि की नेमिनाथ चउपई, अम्बदेवकृत 'धनपाल' ने.---'भविसयत्त-कहा' काव्य रूप में अर्पित
संघपति का समगरास और 'घेल्ह' कृत चउवीसी गीत किया।
उल्लेखनीय हैं। प्रथम तीन रचनायें राजस्थानी भाषा में'पुष्पदन्त' इस युग के सर्वश्रेष्ठ कवि रहे । इनकी
है । चउवीसी गीत की रचना सं० १३७१ में की है। रचनामों ने अपभ्रश-भाषा साहित्य को सम्मान दिया है।
ब्राह्मण वर्ग ने संस्कृत देव-भाषा की मान्यता दे उस भाव, भाषा, शैली सभी दृष्टियों से मापका साहित्य में
पर अपना प्राधिपत्य जमा रक्खा था। अन्य भाषा में उत्कृष्ट स्थान है। सूरदास जी 'के' कृष्ण बाल लीला में
रचना करना हीनता मानते थे । 'अपम्रश' उस समय की प्रापकी रचना का अनुरूप मिलता है-उदाहरणस्वरूप- जन-भाषा थी। जन-भाषा में साहित्य रचना करना "रंगतेन रमंत रमते मचंउ, परिउ भमंतु प्रणते, पांडित्य में न्यूनता समझी जाती थी। उन लोगों ने मंदरित तोडिउमावट्टिउं, प्रड विरोलिउ बहिउ पलोहिउ । संस्कृत-भाषा के नाटकों में अपग्रंश-भाषा का प्रयोग नीच कवि गोवि गोविबह लग्गी, एणमहारी मंयणि मग्गी, जाति वाले पुरुषों प्रथवा नारियों से करवाया है। ब्राह्मणएयहि मोल्लु देउ अलिगणु, णं तो मा मेल्ला में पंगण ॥ समाज अपने को सिर मानता था, व्रजभाषा का उच्चाहिन्दी-चोरी करत काम्ह पर पाये।
रण उसके गौरव के प्रतिकल था। ब्राह्मण-समाज के निसिवासर मोहि बहुत सतायो, अब हरि हायहि माये ॥ सिवाय अन्य किसी साहित्य को अपनश से द्वेष नही था। मालन-वधि मेरो सब खायो, बहुत प्रचगरी कोन्ही, मुस्लिम कवि-'प्रन्दुल रहमान' ने 'सन्देश-रासक' नामक अब तो देख परी हो ललना, तुम्हें भलं मैं चीन्हीं। प्रबन्ध-काव्य की जो श्रृंगार रम का प्रथम श्रेणी का काम्य रोड भूज परि कयौ कह हो, माखन लेउं मंगाई,
माना गया है, रचना अपभ्रश में की है। यह भी कटु तेही सों मैं मेकुन खायो, सखा गये सब खाइ। सत्य है कि जनी अपनी रूढ़िवादी कट्टरता के वशीभूत हो मुहमचित विहसि हरि बीनों, रिस सब गईमाई, अपने साहित्य को प्रकाश में नहीं लाते थे। अधिकाधिक नयो श्याम र लाइग्वालिनी, 'सूरदास' बलि जाई॥ विद्वानों ने उपलब्ध सामग्री को अपनी रचनामों में समा