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१६. वर्ष २५, कि० १
मोकान्त
विष्ट किया। एक बार जिस तथ्य का प्रकार किसी पीठ है । 'पास्तिकता'। इस 'पास्तिकता' के प्राचुर्य ने . विशिष्ट पधिकारी द्वारा हो जाता है, उसके परिवर्तन के तस्कृत मे एक विशाल साहित्य को जन्म दिया है जो उससे भी विशिष्ट दृढ-व्यक्त्त्वि की प्रावश्यकता है। यह स्तोत्र-साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता है। रूढ़िवादिता ने ही अपभ्रश का प्रहित किया है । संस्कृत-भाषा के श्लाघनीय स्तोत्र कोमल भावनामों की संस्कृत
अभिव्यंजना मे अपनी समता नहीं रखते । सस्कृत-साहित्य संस्कृत-भाषा' को देववाणी अथवा सुरभारती भी गीत-काव्यों और प्रगति-मुक्तकों का जनक भी है। इस कहते है । 'संस्कृत' शब्द 'सम्' पूर्वक 'कृ' धातु से बना है, भाषा की मधुरता भी सस्कृत काव्यो की 'गेयरूपता' का जिसका अर्थ होता है-सस्कार की गई भाषा। 'सस्कृत' कारण है। विश्व मे 'कथा' के उद्गम का श्रेय भी इसके प्राचीन भारतीय पार्य भाषामों की विविध बोलियों द्वारा साहित्य को दिया जाता है । यद्यपि अब यह तथ्य स्वीकार समृद्ध हुई है। ये बोलियां ऋग्वेद-काल से लेकर पाणिनि किया जाने लगा है कि सरकृत साहित्य में हुमा कथाऔर पतंजलि के काल तक निरन्तर चलती रही। 'प्रति- साहित्य का प्रवेश प्राकृत-साहित्य से हुआ है। प्राकृत का शाख्य-काल' से ही इसका परिष्कार प्रारम्भ हो गया था। जन जीवन से सम्बन्ध होने के कारण कथा-साहित्य विपुल अन्त में यह 'अष्टाध्यायी' और 'महाभाष्य' के नाम मात्रा मे रचा गया है । यहाँ से 'कथानो ने पश्चिमी देशों निबद्ध होकर सीमित हो गई।
की यात्रा की पोर उन्हें सुबोध दिया। धार्मिक व सामाप्राचीन प्रार्य-भाषा का काल १५०० ई० सन् से पूर्व जिक राजनीतिक आदि सभी नीतियो की सुलभ शिक्षा का तक माना जाता है। उस समय की भाषा का थोड़ा साधन 'कथा' द्वारा प्रभावकारी हुमा और होता है । यही बहुत रूप हमे 'ऋग्वेद' मे मिलता है, किन्तु 'ऋग्वेद' की कारण है कि ब्राह्मण (हिन्दी) जनों और बौद्धो ने समान भाषा साहित्यिक' है। प्रार्य लोग ठेठ (बोली) भी बोलते भाव से इस कथा-साहित्य के परिवर्तन में इलाघनीय रहे, जिसके उदाहरण ऋग्वेद में ही मिलते है। भाषा योग दिया है। कहानी कला और व्यापकता में तो जैनों कभी स्थिर नहीं रहती, उसमें परिवर्तन अवश्यमेव होता की तुलना की ही नही जा सकती। विशाल, भव्य और ही रहता है । भाषा-विज्ञान के इस सिद्धान्तानुसार पार्यो उत्कृष्ट साहित्य इनका उपलब्ध है। की साहित्यिक-भाषा में परिवर्तन होता रहा। इस परि- सस्कृत-साहित्य के इतिहास को तीन कालो मे विभक्त वर्तन का उदाहरण ब्राह्मण और सूत्र-ग्रन्थों में प्राप्त होता किया जाता है-श्रतिकाल, स्मृतिकाल और लौकिकहै । ३०० ई० सन् पूर्व 'पाणिनि' नामक प्रसिद्ध वैयाकरण काल । १. श्रुतिकाल मे 'सहिता, ब्राह्मण, पारण्यक, उपने 'सत्र-काल' के साहित्यिक रूप को व्याकरण के नियमों निषद्' प्रादि ग्रन्थ निर्मित हुए। २. स्मृति-काल में में बाँध दिया, जिससे उसके रूप में परिवर्तन होना बन्द रामायण, महाभारत, पुराण, और वेदाग प्रादि की हो गया।
रचनाएं हुई। ३ लौकिक सस्कृत काल मे पाणिनि के पायों की इस व्याकरण से बंधे नियमों की भाषा नियमों द्वारा भाषा नितान्त संयत और सुव्यवस्थित 'संस्कृत' (भाषा) के नाम से प्रसिद्ध हई, जो अब तक की गई नव्य 'काव्य-नटको' की रचना हुई। प्रचलित है। नियमों में बांधने का अर्थ है संस्कार करना जैन साहित्यकारो ने भी प्राकृत और अपभ्रंश की . पौर संस्कार की हुई भाषा सस्कृत' के नाम से प्रसिद्ध हई। तरह संस्कृत में अपरिमित प्रथ-रचना की है । वे संस्कृत- . किन्तु मार्यों की बोलचाल वाली भाषा में बराबर परि- भाषा के मर्मज्ञ विद्वान थे । धर्म और दर्शन के अतिरिक्त वर्तन होता रहा भोर इस प्रकार प्रार्य-भाषानों का दूसरा काव्य महाकाव्य, कोष, छन्द अलंकार, गणित, ज्यतिष, काल प्रारम्भ हुमा जो ५०० ई० पूर्व से १००ई० पूर्व मायूर्वेद, मुद्राशास्त्र प्रभृति विषयों पर पहली शताब्दी से . तक माना गया हैं।
१७वीं शताब्दी तक इस भाषा में विपुल जैन-साहित्य भारत धर्म-प्राण देश है। भारतीय-धर्म की प्राधार उपलब्ध होता है। यह जैन साहित्यकारों की संस्कृति