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२०२, वर्ष २५, कि०५
अनेकान्त
वही वल्लाल वाराणसी की गंगा में प्राण विसर्जन के लिए सकती है, ऐसा विश्वास किया जाता है । इन्हीं की रचमा जाता हुमा जब इस स्थान (ऊस) पर ठहरा होगा, जिसका को माधार बनाकर सोमतिलक सूरि ने विक्रम की चौदसंकेत किंवदन्ती में है। तब इस होयसल वशी वल्लाल हवीं शताब्दी के अन्तिम चरण मे 'कुमार पाल चरित' द्वितीय ने ऊन में मन्दिरों का निर्माण कराया होगा। की रचना की थी।
दूसरा मत 'पज्जुण्ण चरिय' (प्रद्युम्न चरित) की
इन प्राचार्यों के इन ग्रन्थों से बल्लाल तथा तत्कालीन प्रशस्ति में प्रतिपादित है। इस ग्रन्थ के कर्ता सिद्ध पौर
राजाप्रो के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । सिंह कवि हैं। इसका रचना काल अनुमानतः बारहवीं शताब्दी का मध्य काल है। इसमें बताया है कि वम्हण कुमार पाल जब गद्दी पर बैठा, उस समय चौलुक्य वाड नामक नगर मे अनेक मठ, मन्दिर और जिनालय वंश का राज्य विस्तार सुदूर प्रांतों मे था । उसका मन्त्री थे। वहाँ का शासक रणधोरी का पुत्र वल्लाल था, अर्णो- उदयन था । उदयन का तीसरा पुत्र चाहड बड़ा साहसी राज का क्षय करने के लिए वह कानस्वरूप था। उसका समरवीर था। जब राजकुमार पाल अपने राज्य की व्यवभृत्य गुहिलवंशीय भुल्लण था।
स्था में लगा हुना था, तब किसी कारण वश चाहड़ कुमार अर्णोराज सपादलक्ष (सांभर) का राजा था। उक्त पाल से असंतुष्ट होकर शांकभरी नरेश अर्णोराज प्रशस्ति मे रणधोरी के पुत्र बल्लाल को अर्णोराज से जा मिला । अर्णोराज के साथ कुमारपाल का क्षय करने के लिए कालस्वरूप बताया है। किन्तु अन्य की बहन देवल देवी का विवाह हुअा था किन्तु अोसाक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि अर्णोराज का संहार राज कुमारपाल के विरुद्ध हो गया था । चाहड़ की फूटचौलुक्य वंशी कुमारपाल ने किया था। इससे लगता है नीति से मालव राज बल्लाल भी कुमारपाल के विरुद्ध कि वल्लाल ने किसी युद्ध में अणोराज को पराजित किया इस गुट मे आ मिला। जब कुमारपाल अणोराज होगा किन्तु बाद मे उन दोनों की मित्रता हो गई होगी के उपर चढाई करने के लिए चला तो चन्द्रावती (माबू पौर उन दोनों को कुमारपाल ने पराजित किया ।
के निकटस्थ ) के राजा विक्रमसिंह ने कुमारपाल की अभ्य
र्थना करके भोजन का निमन्त्रण दिया किन्तु चतुर कुमार इस प्रशस्ति से यह भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता कि पाल उसकी कपट योजना को भांप गया । वास्तव में रणधोरी का पुत्र बल्लाल क्या मालवराज वल्लान था
विक्रमसिंह ने लाख का एक महल बनवाया था। वह अथवा निमाड का कोई राजा था। किन्तु विवार करने
कुमार पाल को मारना चाहता था। कुमारपाल उस समय पर यह वल्नान मालवराज प्रतीत होता है। कुमारपाल
वहाँ से शत्रु से युद्ध करने चला गया । उसने अर्णोराज ने जिम वल्लाल को युद्ध में मरवाया था, वह वही
पर प्रबल पाक्रमण करके उसे शरणागत बनने को बाध्य वल्लाल था। जिसने ऊत मे ६६ मन्दिरों का निर्माण
किया। लौटते हुए उसने विक्रमसिंह पर प्राक्रमण किया कराया था और जो मालवा का स्वामी था।
और उसे पिंजड़े मे बन्द करके अपने साथ अपनी राजप्राचार्य सोमप्रभ ने 'कुमारपाल प्रबोध नामक ग्रंथ धानी ले गया। वल्लाल के उपर माक्रमण करने के लिए ६,००० श्लोक परिमाण लिखा था । इस ग्रन्थ की रचना माने विश्वस्त सेनाध्यक्ष काकभर की सेनाध्यक्षता में एक सं० १२४१ में की गई अर्थात् महाराज कुमारपाल की विशाल सेना भेजी। सेनापति ने मालव नरेश का सिर मृत्यु के ११ वर्ष बाद इस प्रन्य की रचना की गई । सोम- काट कर कुमारपाल की विजय पताका उज्जयिनी के रोजप्रभाचार्य महाराज कुमारपाल के समकालीन थे और महलों पर फहरा दी। इस प्रकार गुजरात के पड़ोसी और उन्होंने महाराज को उपदेश भी दिया था। इसलिए प्रतिस्पर्डी तीन राज्यों को एक साथ गुजरात के मातहत इनकी रचना में ऐतिय सामग्री विशेष प्रामाणिक हो कर लिया।