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व्यवहार नीति के प्रगाध स्रोत- जातक एवं धम्मपद
धम्म पद-
बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों का धौर त्रिपिटकों में 'खुद्दक निकाय' का बहुत महत्व है क निकाय का भी सर्वाधिक उपयोगी ग्रन्थ 'धम्मपद' है । विश्व के धर्म - साहित्य में इसका एक अपना स्थान सुरक्षित है। भगवान बुद्ध की कल्याणकारिणी पुनीत वाणी जितने मपुर शब्दों में इस ग्रन्थ में प्रकट हुई है, उतनी धन्यत्र नहीं । इसे बौद्धों की गीता कहा जाता है ।
ग्रन्थ के प्रथम पृष्ठ को देखते ही नीति काव्य का विद्यार्थी इसके विषय निर्वाचन पर खिल उठता है । क्रोध, तृष्णा, पाप, लोक, साहस, मल, चित्त धौर यमकादि नाम से विभाजित प्रत्येक वय (वर्ग) अपने में एक पॉयटिक ट्रीटाहब' सा प्रतीत होता है। लगभग चार सो गाथाओं मे मानों चारों युगों का सत्य समाहित कर दिया गया है। व्यक्तिगत उत्थान सामाजिक कल्याण तथा विश्व शांति के लिए आवश्यक जितने महन् विचार एक साथ, एक स्थान पर इतनी सरल शब्दावली में उतने सर्वत्र सुलभ नहीं । ग्राइए, इस महान् रत्नागार की एक दर्जन प्रमूल्य मणियों का दर्शन करेंउद्दानवतो सतिमतो सुचिकम्मरस निसम्मकारिनो सज्ज तस्स च धम्म जीविनो प्रप्पमत्तस्स यसोभिवढति ।२।४ अर्थात् जो उपयोगी सचेत, शुचिकर्म वाला तथा सोचकर काम करने वाला भौर संयत है, धर्मानुसार जीविका वाला एव प्रप्रमाद है' उसका यश बढ़ता है ।
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अपने से समान व्यक्ति को न पाये, तो दृढ़ता के साथ अकेला ही विचरे, मूर्ख से मित्रता अच्छी नहीं । सेलो यथा एकषनो वातेन न समीरति । एवं निन्दापसंसासु न समिञ्जन्ति पण्डिता ॥ ६६ अर्थात् जैसे ठोस पहाड़ हवा से नहीं डिगता, वैसे ही पण्डित निन्दा भोर प्रशसा से नहीं डिगते । अभिवादन सीलिम्स निच्चं बद्धापचायिनो । बत्ता पम्म बदन्ति बायु वण्णो सुखं बल ॥६।१०
नवस्सुतचित्तस्स प्रनन्वाहतचेतसो ।
पुज पापपहीणस्स दत्थि जागरतो भयं ॥ ३७
अर्थात् जिसके पित्त में राग नहीं, से रहित है, जो पाप-पुण्य विहीन है, को भय नहीं ।
यथापि रुचिरं पुरकं ववन्तं सत्यकं । एवं सुभासिता वाचा सफला होति कुम्बतो ॥४
अर्थात् जैसे सुन्दर वर्णयुक्त सुगन्धित पुष्प होता है, वैसे कथनानुसार पाचरण करने वाले की सुभाषित बाणी सफल होती है ।
चरचे नाभिगच्छेय सेयं सवसमतनो । एकचरिये वल्कविरा नरिव वाले सहायता ॥ ५२
जिसका दिल द्वेष उस जायत पुरुष
अर्थात् विचरण करते समय यदि अपने से श्रेष्ठ या
अर्थात् जो अभिवादनशील है, जो सदा वृद्धों की सेवा करने वाला है, उसकी चार बातें बढ़ती हैं - १. घायु, २. वर्ण, ३. सुख धोर ४. बल । यो च वस्सस जीवे दुप्पोसमाहितो | एकाहं जीवितं सेथ्यो पपजावन्तस्स भायिनो ॥६।१२
अर्थात् दुयश और एकाग्रता रहित के सौ वर्ष के जीने से भी प्रज्ञावान ध्यानी का एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है । सुखकामानि भूतानि यो दण्डेन विहिंसति ।
सुखमेानो पेच सो न लभते सुख ||१०|३
अर्थात् जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने मुख की चाह दण्ड से मारता है, वह मर कर सुख नहीं पाता । पटिक्कोसति तुम्मेयो दिट्टि निस्साय पापिकं । फलानि कटुकस्सेव प्रतहञ्जाय फुल्लति ||१२|८
अर्थात् धर्मात्मा श्रेष्ठ महंतो के शासन की अपनी पापमयी मिथ्या धारणा के कारण निन्दा करता है, वह अपनी ही बर्बादी करता है, जैसे वसि का फूल बास को ही नष्ट कर देता है । कायेन संयुता धीरा प्रथो वाचाय सबुता मनसा संवृता धीरा ते वे सुपरिसंवृता ।। १७।१४
अर्थात् जो धीर पुरुष काय से संयत, वाणी से सयत और मन से संयत रहते हैं, वे ही पूर्ण रूप से सयत है। सेम्पो प्रयोगलो भुसो तसो सिपम यचे भुंजेय्य वुस्सीलो रट्ठपिण्डं सञ्ञतो ॥ २२३
अर्थात् धयमी, दुराचारी होकर राष्ट्र का पि खाने से मग्निशिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम हैं ।
कि ते जाहि दुम्मे कि ते अनिसारिया धम्मग्रं ते गहन बाहिरं परिमसि ।।२६।१२
अर्थात् हे दुर्बुद्धि ! जटाधों से तेरा क्या ( बनेगा