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१९२, पर्ब २५, कि०४
अनेकान्त
पूजा के भाव उमड़ पड़ते हैं।
तो पृथ्वी के गर्भ में सदियों से पड़ा। कोई प्रभाव ऐतिहासिक लखनादौन क्षेत्र में यह बात सर्वविदित है कि लखना
अथवा पार्मिक स्थल भग्नावस्था मे मिल सकेगा । लखनादोन नगर एवम् मास-पास अनेकानेक प्रतिमाएं खण्डित
दौन नगर से ही प्राप्त दो जिन प्रतिमाएं कलकत्ता एवम मखंडित प्रवशेष विभिन्न देवी-देवताओं की छबियां, तीर्थ
नागपुर के संग्रहालय में प्रदान की जा चुकी हैं । चन्द्र कर मूर्तियों के मनोज्ञ विवादि दशाब्दियों से यहां के नाग. प्रभु भगवान् की एक प्रतिमा स्थानीय नागरिक श्री छेदी रिकों को प्राप्त होते रहे हैं और घर-घर कोई न कोई
लाल के घर में एवम् अन्य खड़गासन प्रतिमा फुल्ल मेहरा पुरातत्व महत्व की सामग्री उपेक्षित सी दिखाई जाती के खेत से विगत दिनों उपलब्ध हुई है, अन्यत्र घरों में है। किन्ही-किन्हीं घर, दिवाल मथवा नीव तक मे प्रति ग्रामों में भी सैकड़ों की संख्या में ये प्रतिमाएं बिखरी सुन्दर मूर्तियाँ पत्थरों पर उत्कीणं महत्वपूर्ण कला-कृतिया पड़ी हैं और संरक्षण के प्रभाव में क्रमश: नष्ट प्रायः होती घर, मामलक, पाषाण खम्भे अथवा दरवाजे दिखाई देते जा रही हैं। हैं। पाये दिन देखे जाने वाले इन साक्ष्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि हजार बारह सो वर्ष पूर्व लखनादौन माज स्थापत्य कला के संरक्षण की बात शासन एव नगर जैन सस्कृति का कोई महत्वपूर्ण स्थान रहा है। समाज के मस्तिष्क में विशेष प्रभावशाली हो उठी है, सागर विश्व विद्यालय के प्राचीन इतिहास, सस्कृति तब ऐसी स्थिति में लखनादौन एव इमके पास-पास सर्व. एवं पुरातत्व के प्राचार्य एवम् अध्यक्ष डा. कृष्ण क्षण के द्वारा पुरातत्त्व के महत्त्व की सामग्री को प्रकाश में दत्त बाजपेयी ने गत दिनों लखनादौन एवम् प्रास- लाना नितान्त प्रावश्यक है। भगवान महावीर स्वामी पास प्राप्त पुरातत्व स्थलों का सूक्ष्म निरीक्षण
के पच्चीस सौंवें निर्वाणोत्सव के कार्यक्रमों में एक कार्य किया था भोर यहा प्राप्त स्थलों के उत्खनन की महती इस क्षेत्र में पुरातत्त्व एवम् ऐतिहासिक पुनरुद्धार का भी मावश्यकता प्रतिपादित की थी।
जोड़ा जा सकता है । शिल्प कला मानवीय विकास क्रम
में अपना निज का मस्तित्व रखती है। कारण वह मानव जनधर्म के अन्तर्गत मूतियो एवम् मन्दिरो का निर्माण बोध को स्पर्श करती है । उसके चुने सस्कारों को सवाबहुतायत से होता रहा है-कभी-कभी तो इन सबको रती है। उसमें कला के प्रति कलात्मक सौन्दर्य का वपन देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि मनुयायियो ने अपनी कर स्वस्थ्य जीवन दृष्टि प्रदान करती है। उसमें प्रति सस्या से ज्यादा सख्या मे मूर्तियो एवम् मन्दिरो का भौतिकता के गाढ़े रगों को माध्यात्मिकता के रगों से निर्माण कराया होगा । जैन समाज मे माज पुरा- परिवर्तित कर सुख प्रद पात्म कल्याणकारी दर्शन प्रदान तत्व के प्रति जागरूकता प्रकट होती जा रही है और जो करती है-ऐसा दर्शन जो गहनतम् होते हुए भी जनकुछ इने-गिने लोग इसके हेतु प्रयत्नशील है, वे साधन बोष को स्पर्श करता हुपा होता है । अत: जीवन के इतने एवम् सकल्प के प्रभाव मे निष्क्रिय से हो जाते हैं । किसी महत्वपूर्ण पक्ष को उपेक्षा में रखना न्याय संगत ना होगा भी धर्म या समाज के लिए उसकी कला, साहित्य, विज्ञान विशेष कर जैन समाज जिनकी कि ये धरोहर हैं, का ही उत्तरदायी रहते हैं मोर इस दृष्टि से जैन समाज के दायित्व इस दिशा में बहुत अधिक बढ़ जाता है, किन्तु पास अपनी-अपनी जो "थाती है, वह यदि संवारी जाये खेद है कि भाज सम्पन्न जैन समाज भी जिस अनुपात तो मनूठी एवम् सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो सकती है।
मेंस पर में इस पुरातन "याती" के प्रति कर्तव्य निष्ठ होना
पाहिए, नहीं दीख पड़ती।माज की महती मावश्यकता लखनादौन एवम् पास-पास . ४०-५० मील के है कि जैन समाज इन प्रतिमानों को मानव जीवन हेतु क्षेत्र में भी पुरातत्व की सामग्री बहुतायत से उपलब्ध है उपादेयता को मात्मसात कर इनके संरक्षण एव सम्बर्धन पौर यदि उत्खनन के कार्य को सक्रिय बना दिया जावे की दिशा में क्रियाशील हो उठे।