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________________ कवि विनोदीलाल परमानन्द जैन शास्त्री यह वत्सदेशान्तर्गत सहजादपुर के निवासी थे, यह तेरी मुट्ठी में है, फिर क्यों दशों दिशाओं में दौड़ लगा नगर गंगा तट पर बसा हुमा था । इनकी जाति अग्रवाल रहा है। अपने स्वभाव को पोर देख, विवेक को जागृत कर मोर गोत्र गर्ग था। यह काष्ठासंध माथुरसघ पुष्करगण के ऐसा कार्य करो, जिससे अविचल सुख की प्राप्ति हो और भट्टारक कुमारसैन की माम्नाय के विद्वान थे, इनके फिर संसार में माना न हो। पिता का नाम दरिगहमल्ल था । परदादा का नाम मडन तू यह मयत न, काहे मढ गमावं । पौर दादा का नाम पारस था। दरिगह विद्वान थे पोर सासय सुखदायक सो तू एंदिन पावे।। कवि भी। इनके बनाए हए अनेक पद पोर जकड़ी मादि दंड न पावं पास तुमही, माप माप समावए । हैं जो स्व-पर सम्बोधक हैं । पर इनका बनाया हुआ कोई गुण-रतन मूठी माहि तेरी काई वह विशि धावए ।। ग्रंथ देखने में नहीं पाया । हाँ, जकड़ी में अपने को संबो. वह राज अविचल करहिं शिवपुर, फिर संसार न मावए। धित करते हुए कवि कहता है कि हे जियरा ! तू सुन, यों कहि वरिगह यह मणुय तन काहे मूत गमावए ।। तू सुन! तू तो तीन लोक का राजा है, तू घर-बार को इस कथन पर से दरिगहमल की कविता, उसकी छोड़कर अपने सहज स्वभाव का विचार कर, तूं परमें भाषा पोर भाव का सहज ही भाभास हो जाता है। वह क्यों राग कर रहा है? तुने मनादि काल से आत्मा उदासीन विद्वान थे और सेठ सुदर्शन के समान को पर समझा है पौर पर को प्रात्मा। इसी कारण विजयी और दृढ़ व्रती थे। उनका समय १७वीं शताब्दी चतुगंति में दुःख का पात्र बन रहा है, अब तू एक उपाय का पूर्वाद्ध है। इन्ही के पुत्र कवि विनोदीलाल थे। जो कर, सुगुणों का अवलम्बन कर, जिससे कर्म छीज जाय जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान भोर कवि थे। मापकी -विनष्ट हो जाय । तू दर्शन ज्ञान चारित्रमय है मोर छह रचनाएं मिलती हैं, भक्तामर कथा सं० १७४७, त्रिभूवन का राव है। जैसा कि जकड़ी के निम्न पथ से सम्यक्त्व कौमुदी सं० १७४६, श्रीपाल विनोद (सिद्ध प्रकट है : चक्र कथा) सं० १७५०, राजुल पच्चीसी, नेमिनाथ व्याला सुन-सुन जियरा रे, तू त्रिभुवन का राव रे। और फूलमाल पच्चीसी। इनके अतिरिक्त अन्य रचनाएं भी दूसवि पर भाव रे, चेतसि सहज सुभाव रे॥ मम्वेषणीय हैं। राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों की सूची के चेतसि सहन सुभावरे बियरा, परसों मिलि क्या राब रहे। पांचवें भाग से विनोदीलाल की दो रचनामों का पौर माया परनाम्या पर पप्पाना, पगासप्रणा सहे। पता चलता है, नवमंगल और बारहमासा । अब सो गुन कीजे कहि छीजे, सुणहन एक उपारे। कवि विनोदीलाल ने 'भक्तामर कथा' की रचना सं. सण-णाण-चरण मयरे जिय, त्रिभुवन का राव॥ १७४७ में सावन सुदी दोइज के दिन की है। उसमें इससे पता चलता है किकवि दरिगहमन की कविता भक्तामर स्तोत्र के उन मंत्र-साधकों की कथा दी है जिन्हें धार्मिक होते हुए भी सरस भोर भावपूर्ण तथा स्व-पर उसका फल प्राप्त हुमा है । दूसरी रचना सम्यक्त्व कौमुदी सम्बोधक है। जकड़ी के अन्य एक पत्र में बतलाया है है, जिस में सम्यक्त्व की उत्पादक कथामों को पचों में कि हे मूक तू मानव जन्म को व्यर्थ न गा, इसी कारण अंकित किया है। उसे कवि ने स. १७४६ में बनाकर तु शाश्वत सुख को नहीं ढूंढ़ पा रहा है। गुण रूपी रल समाप्त किया था। तीसरी रचना 'श्रीपाल विनोद (सिद्ध
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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