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लखनादौन की अलौकिक जिन प्रतिमा
सौंदर्य बोष की दृष्टि से बहत ऊपर उठकर है। लखना- लाल जी ने लेख की लिपि के अनुसार हवौं-१०वीं दोन नगरी महाराष्ट्र बंदलखण्ड एवं गोंडवाना की शताब्दी का निरूपित किया है और इस प्रकार यह शिल्प सीमानों को स्पर्श करती हुई, राष्ट्रीय मार्ग न०२६ एवं कलचुरि कालीन ही ठहरता है । इसके साथ ही प्रतिमा न०७ तक रायपुर भोपाल राष्ट्रीय मार्गों की त्रिवेणी के जी के सिर को पञ्चगुच्छक केशावलि लटकते कर्ण, लघु संगम पर स्थित जबलपुर से ५२ मील स्थित सिवनी जिले श्री वत्स एवं कण्ठ में उत्कीणं तीन रेखाएं भी इस प्रतिमा की एक मात्र तहसील का मुख्यालय है। काल के प्रसह- जा का कलचुार कालान हा
__ जी को कलचुरि कालीन ही निरूपित करती हैं । प्रतिमा नीय कर थपेड़ों ने लखनादौन के कलात्मक वैभव को
जी अत्यन्त मनोज्ञ, दिव्य तथा चित्रावर्षक तप की मुद्रा भूमिगत करने में सफलता प्राप्त की और परिणाम स्वरूप
में अत्यन्त सानुपातिक रूप में सुन्दर से सुन्दरतम् भावों यह क्षेत्र, अनदेखा अनजाना सा पडा रहा। इसे देव
में उत्कीर्ण करने में कलाकार ने अपनी कला में पूर्णतः सयोग अथवा बहुत बड़े सौभाग्य की ही संज्ञा दी जा प्राप्त की है । शारीरिक शोष्ठव की दृष्टि से प्रब तक सकेगी कि लखनादौन मे भगवान महावीर की यह प्रतिमा प्राप्य कलच
म प्राप्य कलचुरि कालीन प्रतिमानो मे यह बहुत ऊपर उठखेत साफ करने समय श्री शारदाप्रसाद माली को मिली कर है। . पौर स्थानीय जैन समाज ने इसे लाकर अपने मन्दिर में
भगवान प्रति मनोज्ञ एवं सौम्य मुद्रा में चार खम्भों प्रतिष्ठापनार्थ रक्खा।
से निर्मित सिंहासन में पद्मासन रूप से विराजमान है। प्रस्तुत उपरोक्त प्रतिमा उसके सौदर्य में उसकी अलंकरण
बीच मे धर्मचक्र की अर्चना करते हुए मूर्ति स्थापक सज्जा संरचनामें अद्वितीय है। प्राचीन मूर्तियों में इसे अनुपात
पति पत्नी बैठे हैं। खम्भों के दोनों मोर सिंहासन के में नयनाभिराम एवं हृदयवलेक सौदर्याभिव्यक्ति प्रायः कम
सिंह दिखाई देते है । भगवान् की ध्यानस्थ मुद्रा के दोनों ही देखने को मिलती है । उपरोक्त तथ्य अतिशयोक्ति के
मोर दो इन्द्र (सौधर्म और ईशान) चवर ढालते खड़े बिन्दु पर ना होकर एक वास्तविक तथ्य का प्रतिपादक
हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे उनकी भाव-भक्ति में हैं। ऐसा मत इसे देखकर कला पारखियों ने व्यक्त किया कही कोई त्रुटि नहीं है । भगवान् की दृष्टि नासान पर है। पूर्ति में उत्कीर्ण स्थापत्य कला इस बात का संकेत केन्द्रित है और केश राशि गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित देती है कि लखनादौन क्षेत्र मध्य युगीन (९००-१००० की गई है ।सबसे कार मध्य भाग में त्रिछत्र दर्शाया है। ईस्वी) में कलचुरि कला से सन्दभित है। भारतीय शिला जो कि भगवान के तीनों लोकों का स्वामी होने का प्रतीक लेखो एव शिलापटों के पारखी एवम् इससे सम्बन्धित है त्रिछत्र के दोनों प्रोर गजराज रूपी वाहनों में देवी-देवता सामग्री के अधिकारी विद्वान स्वर्गीय राय बहादुर होरा. गण पुष्प वृष्टि करते दर्शाये गये हैं । हाथियों एवं हाथियों लाल जी ने अपनी पुस्तक "इन्सक्रिप्संस इन सी.पी. एण्ड- पर प्रारूढ़ देवी देवताओं की वेशभूषा, भक्ति रस के अनुबरार" के ६६ पृष्ठ पर जो कि पराधीन भारत के १९३२ रूप एव भाव भंगिमाए ना केवल डोलती वरन् बोलती मे शासकीय मुद्रणालय नागपुर से मुद्रित है, में लखना- सी प्रतीत होती हैं प्रत्येक देवी-देवता के प्राभूषण, मुकुट, दोन से प्राप्त एक द्वार शिला खंड पर प्रकित अभिलेख कण्ठमाल, कर्धनी एवं अन्यादि अलकरणों का इतना सजीव का विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह व्यक्त किया है कि व स्पष्ट चित्रण है कि कलाकार की जितनी प्रशसा की इस क्षेत्र में मैन मन्दिर प्रवषय रहा है और उन्होने जाये, कम ही है । गजों तक की सूंड में कमल पुष्प लिए शिला खड पर उत्कीर्ण लेख की तिथि के अाधार पर भाव-भक्ति में दर्शाया गया है । त्रिछत्र के नीचे भामडल मन्दिर निर्माता को 'अमृतसेन' का प्रशिष्य एव त्रिवि- की सुन्दरतम् रचना है । मूर्ति के मुख-मण्डल पर मन्दा. 'क्रमसेन' का शिष्य बताया है और साथ ही यह बात भी स्मित सौम्य तपस्वी भाव देखते ही बनता है और एक बार कही है कि मन्दिर निर्माता का नाम लेख की तिथि के भी इस मलौकिक जिन प्रतिमा जी के दर्शन कर लेने पर अनुसार अदृश्य सा ही दृष्टिगोचर होता है। स्व० हीरा- भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के व्यक्ति के हृदय मे वीतराग