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________________ लखनादौन को अलौकिक जिन प्रतिमा ० सुरेशचन्द्र जैन मानवीय प्रगति का इतिहास अतीत और वर्तमान से जहां तक स्थापत्यकला प्रश्न है उपलब्ध जिन प्रतिसम्बन्धित है। प्रतीत का सदैव यह प्रयत्न रहा है कि वह माएँ अन्य धर्मों की प्रतिमामों से बहुत मागे बढ़ चुकी वर्तमान को उत्प्रेरित कर जीवन को जागृति की विभिन्न हैं-इस तथ्य के तत्व को न केवल भारतीय वरन् पाश्चाप्रवस्थानों में झकझोरता उसे निरन्तर अग्रेषित करने का त्य कलाविद् भी एक स्वर से स्वीकारते है । चकलाविद् प्रयास करे। भारतीय इतिहास सेकड़ों वषा की गुलामो ज्वरीम्मा का कथन है-"स्थापत्य कला के क्षेत्र मे जैनियो के सिसकते हए दिनों से छुटकारा तो पा गया, पर माज ने जो पूर्णता प्राप्त की है कि अन्य कोई भी उसके समक्ष भी स्वतंत्र भारत के नागरिक पराधीनता की परिसीमानों नहीं ठहरता ।" प्राज भी विश्व का प्राठवां प्राश्चर्य से ऊपर उठ कर अपने अतीत के चुने हुए सस्कारों से श्रवणवेलगोला (गोमटेश्वर-बाहुबली), प्राब के जैन मंदिर सम्बन्धित करने की दशा में पूर्णतः सक्षम नहीं हो पाये पाश्र्वनाथ, राजगृही पावापुरी, ककानी टोला (मथुरा) दीखते । अाज हम पश्चिमी सभ्यता की चका-चौध से प्रादि स्थानों की जैन मूर्तियां, पुरातत्त्व एव इतिहास इतने प्रभावित हो गये हैं कि हमें हमारी अपनी शानदार अपनी प्राचीनता एवं कलात्मक वैभव का उद्घोष करती संस्कृति एवं उसके मूल्यो को तनिक भी सम्हालने की हैं। इतना ही नहीं, प्रवृत्ति के अन्तगल मे समय के कूट लालसा नहीं दिखाई देती। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे थपेड़ो से श्रापित यदा-कदा, यत्र-तत्र जो महत्वपूर्ण शिल्प अपने ही क्रिया कलाप अपनी महान् संस्कृति को भूल कर सम्पदा प्राप्त होने के समाचार मिलते है-उनमे ६० प्रतिउनमें विकृतियों को ही पनपाने का उपक्रम रच रहे है। शत जैन पुरातत्त्व से सम्बम्धित होता है। यदि उत्खनन के हमारी भारतीय सस्कृति एक ऐसी स्थली का कार्य करती कार्यको भौर अधिक सक्रिय या गतिशील बना दिया जाये तो है-जहां पर समग्र मानव जीवन के विभिन्न रूप पाकर यह बात निःसन्देह कही जा सकती है कि प्रतीतकी स्थापत्य एक घाट पानी पीते प्रतीत होते हैं । इसने सदैव वैभिन्न कला एक बार पुनः जैन शिल्प से सन्दर्भित ही होगी। में एकत्व को ही प्रश्रय दिया है । अनेकता में एकता ही माज जैन शिल्प सपदा इतनी प्रचुर मात्रा मे जाने-मनइसके मूल भून प्राण है । सस्कृति को सवारने मे धम एक जाने रूप मे बिखरी दिखाई देती है कि उसकी भोर बहुत बड़े सहायक उपकरण के रूप में अपनी भूमिका शासन एव समाज दोनों की पर्याप्त दृष्टि नही जा सकी। निभाता है। भारतवर्ष में पादिकाल से विभिन्न धर्माव- लखन दौन क्षेत्र भी इसी प्रकार के क्षेत्रो मे से एक है लम्बियों का अस्तित्व रहा है । जैनधर्म भी भारतीय और इसी लखनादौन में गत दिनों प्राप्त मलौकिक जिन घमो में प्रत्यन्त प्राचीन एवं मौलिक धर्म है, जिसको अपनी प्रतिमा का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। विशिष्ट विशेषताएं हैं। कला शिल्प , साहित्य, दर्शन आदि बहुत ही निकट समय मे भगवान महावीर स्वामी के प में जैनधर्म ने भारतीय संस्कृति को विशेष रूप से पच्चीस सौवे निर्वाणोत्सव का प्रायोजन विकट रूप से जो देन दी है-वह कभी भी विसरामी नहीं जा सकती। सम्पन्न होने जा रहा है-ऐसे समय में महावीर स्वामी जैनधर्म की मौलिक विशेषताएँ माज भी अविच्छिन्न की इस प्रतिमा का प्राप्त होना निश्चयात्मक रूप से बड़ी रूप में प्रवाहित हो रही है, जो कि कलात्मक प्रताको के उपलब्धि है। यह जिन प्रतिमा (सिंहासन के चिन्हों को रूप में दिखाई देती हैं। जैनधर्म के अनुयायियों ने ही लांक्षन मानकर इसे सभी विद्वानों ने महावीर स्वामी की सर्वप्रथम कला के माध्यम से देवत्व का माभास कराया है। प्रतिमा माना है) सामान्य नहीं, अपितु उसके कलात्मक
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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