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________________ * प्रहम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वष २५ किरण ५ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० स० २०२६ नवम्बरदिसम्बर १९७२ शान्तिनाथ स्तोत्रम् लोक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वररुद्धृतं, यस्योपयं परोन्दुमण्डल निभं छत्रत्रय राजते। प्रश्रान्तोद्गतकेवलोज्ज्वलरुचा निर्भत्सितार्कप्रभं। सोऽस्मान् पातुनिरजनो जिनपतिः शान्तिनाथः सवा ॥१ देवः सर्व विदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोको पतिः, सन्त्यस्येव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । एतदघोषयतोव यस्य बुिधरास्फालितो दन्दभिः, सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२ -मुनि पचनन्दि प्रर्थ-जिस शान्तिनाथ भगवान के एक-एक के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किये गये चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हए निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञानरूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं वह पापरूप कालिमा से रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें॥१॥ ___ जिसकी भेरी देवों द्वारा ताडित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोकों का स्वामी और सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव हैं और दूसरा नहीं है; तथा समस्त तत्त्वं के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनों को अभीष्ट हैं, दूसरे किसी के भी बचन उन्हें अभीष्ट नहीं है। वह पापरूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें ॥२॥
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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