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________________ विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के पुरातत्व संग्रहालय को प्रकाशित जैन प्रतिमाएँ " धनी १० प्रतिमाएं सर्वतोभद्र महावीर की मूर्तियां हैं जिन पर पारदर्शी वस्त्र है अतः श्वेताम्बर धर्म की प्रतिमा है । सभी प्रतिमा में महावीर पद्मासन में ध्यानमग्न मुद्रा मे प्रकित हैं । प्राप्ति स्थल उज्जैन की नयापुरा बस्ती है जहाँ बाज भी घनेक जैन मन्दिर स्थित है। मूर्ति क्र. २२७ मे प्रस्तर फलक का ऊपरी भाग है और शेष भग्न है। ऊपर तीर्थदूरी पर पूर्ण पट लिए अभिषेक रत हाथी, किन्नर, वादक मंडल, व दोनो कोनो में पद्मासन में अन्य दो तीर्थङ्कर प्रकित हैं। इसका प्राकार २३x२४x२३ से० मी० का है । एक अन्य भव्य तीथंङ्कर प्रतिमा ८५ X ६६ ३३ से० मी० के प्राकार की है। सीवत्स लांछन व संगमरमर का बारीक कार्यदृष्टव्य है। क्र० २२८ में पद्मप्रभु की ध्यानमग्न तीर्थंङ्कर प्रतिमा है प्राकार ७३ X ५७ X ३२ से० मी० है । यह जवास नामक स्थान से मिली है। काले पत्थर मे यहाँ प्रतिमा है व दो पक्तियों का अभिलेख है जिससे १३वीं शताब्दी में निर्मित होना स्पष्ट होता है । इस प्रतिमा के नीचे निम्न लिखित अभिलेख अकित है : - "संवत १२२३ वर्ष माघ सुदी ७ भौने श्री मुलघ... श्री विशालकीर्तिदेव तस्य ९३ शिष्य रस्नकीर्ति श्री मेहतवालान्वये नये सा मोगा भार्या सावित्री पुत्र मखिल भार्या विल्हन पुत्र परम भार्या पचावती व्याप्त विणि पुत्र प्रणमति नित्यम् || प्रतिमा के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न उत्कीर्ण है । गुरु जो " अगली तीर्थङ्कर प्रतिमा में महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा मे हैं व खड्गासन में अकित हैं। लाकार है ७२X ६εX ३० से० मी० । संग्रहालय में चक्रेश्वरी देवी की ३ प्रतिमाए हैं। एक अन्य प्रस्तर फलक पर केवल पाद स्थल ही शेष है ऊपर प्रतिमा का भाग भग्न है। नीचे स्वास्तिक उत्कीर्ण है अतः सुपार्श्वनाथ ( सातवें तीर्थङ्कर ) को प्रतिमा है यह पहचान होती है। शिरीषवृक्ष की छाया व सर्प फण सुस्पष्ट हैं । (पृष्ठ १० का शेषांश) भेद ज्ञान अरु कतक फल, सद्गुरु दियो बताइ । चेतन निर्मल तत्त्व यहु, सम तब केतिकु पाई ।। ६५ गुरु बिन भेदन पाइये को पर को निज वस्तु बिन भवसागर विर्ष, परत गहै को तत्थु ॥ ६६ गुन भोजे गुरुन के, तो जन होवे सिद्ध लोहा कंचन हेमज्यों, कचन रस के विद्ध ॥२७ गुरु माता श्ररु गुरु पिता, गुरु बन्धव गुरु मित्त । हित उपवेद कमल ज्यो, विकसावं जिन पित्त ॥१६ गुरु न लखायो मैं न लख्यो, वस्तु रम्य पर दूरि । मानस सरम के नाल है, सून रह्यो भरपूरि ॥ रूपचन्द सद् गुरुनि को, अनि बलिहारी बा प्रापनु जे शिवपुर गए, मध्यनि पथ लगाइ ॥ १०० * इस प्रकार संग्रहालय की जैन तीर्थंङ्कर प्रतिमानों से जैन धर्म का व्यापक विस्तार ज्ञात होता है । कला की दृष्टि से इन पर चदेल शैली व परमार शैली का मिश्रण है। परमार कला में निर्मित गोलाकार मुख व सुचिक्कणता विशेषकर रही और यही इन प्रतिमानों पर अंकित है ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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