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७०, वर्ष २५, कि०२
अनेकान्त
गोलापूर्व क्षत्रिय कृषि करते रहे व अन्य जातियों के के नागकुमार चरित में गोलाराडान्वय को 'इक्ष्वाकुवंश सम्पर्क में प्राकर वैष्णव-धर्म में शोषित हो गये। [ऐसा संभूत' [अनेकान्त दिसम्बर '७१] एवं सं० १७२२ के ही अन्य उदाहरण है 'गृहपति' अन्वय का, जो वर्तमान में नया मन्दिर लश्कर के यत्र लेख में 'इक्ष्वाकुवशे गोलसिवष्णव 'गहोई' वश्य है] । अन्य जैन बने रहे व वैश्य घारान्वये' लिखित है। [अनेकान्त जून '६६] । यह इस कर्म करने लगे। गोलापूर्व ब्राह्मण भी 'गोला' स्थान के बात को सिद्ध करने के लिए तो पर्याप्त नहीं है कि वे वासी थे, पर उनका अन्य गोलापूर्वो से जातीय सम्बन्ध वास्तव में इक्ष्वाकुवंशी है, पर इससे तीनों के एक ही है या नही, कहा नही जा सकता।
होने के पक्ष मे प्रमाण मिलता है। 'गोलापूर्व' में 'पूर्व' का अर्थ क्या है ? 'पूर्व' दिशा भेद विचार-वर्षमान पुराण में गोलापूर्वो के तीन में रहने वाले यह अर्थ कम सम्भावित प्रतीत होता है। भेद कहे गये है बिसविसे, दसविसे और पचविसे । वर्तकारण अन्य दिशा सम्बन्धित जातियां (जैसे गोला-उत्तर मान मे केवल विसविसे व पचविसे ही हैं । पचविसे अल्प मादि) नहीं है। 'पूर्व' का अर्थ 'पहले' (अर्थात काल ही है। इनकी लगभग सम्पूर्ण प्राबादी रहली (जि. सम्बन्धी) रहा होगा या कोई अन्य लक्षणार्थ रहा होगा। मागर) हटा (जि० दमोह) व जबलपुर जिले मे है ।
गोलालारे (गोलाराड) व गोलसिंगारे जातियां बाद ये यहाँ बहुसंख्यक विसविसों के पाने के बहुत समय पूर्व में उत्पन्न लगती है। प्रतीत होता है कि ये गोलापूर्व
से प्राबाद है। जाति की ही शाखाएँ रही हैं। हमें गोलाराडान्वय का
जिस तरह अन्य जातियों में दसा भेद उत्पन्न हुमा प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख स० १४७४ व गोलासिंगारों का
होगा उसी तरह दसविसे ब पचविसे भेद उत्पन्न हुए प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख सं० १६८८ का है [अनेकान
होगे। कुछ विद्वानों का मत है कि किसी समय किसी जून '६६] ।
विवाद में २०४२०-४०० घर 'एक पोर' १०x२०= बुन्देलखंड के शिलालेखों के तिथि-क्रम के अध्ययन से
२०० घर एक और ५४२०=१०० घर एक पोर थे पह स्पष्ट है कि दो कालों में बड़ी संख्या में मूर्ति-प्रतिष्ठा
जिनसे क्रमशः बिसबिसे, दस बिसे व पचबिसे भेद उत्पन्न
हुए । पर यह कल्पना कृत्रिम प्रतीत होती है । मध्यप्रदेश इई है एक लगभग सं० ११४० से सं० १२३७ तक व फर बीच में बहुत कम प्रतिष्ठाये हुई थीं। इस काल मे ।
की ही वैष्णव नेमा जाति मे बीसा, दसा व पचा भेद सलमानों के प्राक्रमण के कारण अव्यवस्था रही है व ।
वर्तमान है जिनमे उपरोक्त गणित लगाना असम्भव है । माजिक गतिविधि क्षीण रही है। इसी काल मे गोला
हाँ, बिसबिसे-पचबिसे भेद तीव्र कभी नहीं रहा । डे अलग हुए होगे। कम सामाजिक गतिविधि का
स० १९७८ से, एक कमेटी के निर्णय के बाद परस्पर रा काल स०१५४८ के बाद से स. १८०० तक रहा विवाह सम्बन्ध हान लगे है। । इस समय गोलसिंगारे जाति बनी होगी। सं० १८००
दसविसों का या तो नाश हो गया या वे मन्य दो
भेदो मे मिल गये। पुनः व्यापक रूप से प्रतिष्ठायें होना प्रारम्भ हुआ था
गोत्र व पद विचार-वर्षमान पुराण में ५० गोत्र र यह अब भी चल रहा है। [सं०१५४८ में स्थापित
गिनाये गये । अन्य गोत्रावलियों में प्राप्य कुछ अन्य गोत्र नयों को सख्या पाश्चर्यजनक रूप से अधिक है।]
मिलाकर ७६ गोत्र होते है। वर्तमान में केवल ३३ गोत्र गोलालारों की संख्या गोलापूर्वो से कम है, गोलसि
पाये जाते हैं। की पौर भी कम, यह बात भी उपरोक्त कथन का गोत्रों का अध्ययन करने में कुछ कठिनाइयाँ हैं । र्थन करती है।
कुछ गोत्र प्राचीन है तो कुछ समय पर निर्मित होते रहे इन तीन जातियों के मूल रूप में एक ही होने के हैं। कुछ गोत्रों के लोग अन्य जातियों में प्रवेश कर गये । नि मे एक अन्य तथ्य भी है । द्रोणागिर के सं. १९०७ कुछ अपनी किसी पदवी को ही गोत्र रूप में प्रयुक्त करने ति लेख में "इक्ष्वाकुवंशे गोलापू" है । सं० १५११
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