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गोलापूर्व माति पर विचार
स्टेट में तथा इनके पास गोलापूर्व की विशेष प्राबादी है। का नामकरण कर लिया और इस प्रकार जातियों का यहाँ से ही गोलापूर्व अन्य स्थानों को जा-जाकर बसे है। जन्म हुप्रा । "मादि-पुरुष" मादि की कल्पना (जैसे अग्रवर्तमान में जो गोलापूर्व बुन्देलखड के दक्षिण में (सागर, वालों के राजा अग्रसेन प्रादि) बाद में मोड़ी गई है। दमोह व जबलपुर जिला) बसे हुए है, वे सब उत्तर से हो, पलग-अलग जातियों में प्रमग शारीरिक विशे(बन्देलखड के प्रान्तरिक भागों से ) प्राकर बसे हैं । उदा- षता हूंतने का प्रयास मुश्किल ही होगा। एक ही जाति हरण देखिये -पाटन के राधेले सिंघई प्रहारक्षेत्र से प्राकर में गोरे से गोरे या काले से काले लोग मिल सकते हैं। बसे थे। सागर के फूस केले सिंघई मदनपुर (जि० झांसी) ऊँची प्रार्य-नाडिक नाक वाले या प्रकीकियों जैसी नाक से पाकर बसे है (लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व प्राकर बसे वाले मिल सकते हैं । जातियों का अध्ययन कृतत्व-गास्त्री हैं। हटा के टैटवार सिंघई बमानी (छतरपुर) से दो सौ (anthropoiogtt) के लिए सिर दर्द ही साबित होगा। वर्ष पूर्व प्राकर बसे है । रोठी (जि. जबलपुर) के पड़ेले गोलापूर्व ब्राह्मणो व गोलापूर्व क्षत्रियों के बारे में सवा सौ वर्ष पूर्व पता (जि. टीकमगढ) से पाये थे। विचार पावश्यक है। वर्तमान मे इनमे व जैन मोलापकों कटनको के पटवारी कोठिया लगभन ८० वर्ष पूर्व गोरख- में कोई सम्बन्ध नहीं है, न ही किसी सम्बन्ध की स्मति पूरा से पाये थे। दमोह गजेटियर (१९०१) लिखता है है। गोलापूर्व ब्राह्मण जिला प्रागरा, मथरा. बदायं. एटा कि दमोह के परवार टीकमगढ-टेहरी से माये थे और रियासत घोलपुर, ग्वालियर, भोपाल, इंदौर, दतिया. गोलापूर्व भी उसी ओर से आये थे।
कोटा, जयपुर, जोधपुर व जिला होशंगाबाद तथा खंडवा अतः पुराना ओरछा व पन्ना स्टेटों के (पाप-पास में बसे है । सन् १९४० मे ये अपनी जनसख्या ३-४ लाख जिले टीकमगढ, छतरपुर, पन्ना) ही 'गोला' स्थान होना ___ बताते थे। [श्री म. भा. दिगम्बर जैन गोलापूर्व चाहिए।
डायरेक्टरी] | इनके इतिहास के बारे में कुछ ज्ञात नहीं। महोबा में कुपा खोदते समय एक बार २४ जेन गोलापूर्व क्षत्रियो के बारे में कुछ जानकारी 'Caste प्रतिमाये प्राप्त हुई थी। इनमें से तीन पर के लेखों मे Eystern of northern India.' में मिलती है। इनके (सं० १२१६, १२४३, य२४३) गोलापूर्यान्वय का इतिहास के बारे मे कोई उल्लेख नहीं। इन्हें एक कप उल्लेख है । शेष पर के लेखो में (इन सं० ८३१, ८२२, जाति कहा गया है। ये (और दांगी क्षत्रिय) मोम ११४४ व १२०६ के लेख भी है) किसी जाति नाम का करते है। इनके गोत्र प्रामो के नाम पर से हैं। ये कच्च उल्लेख नहीं है। सम्भव है सभी गोलापूओं (या उनके भोजन सजातीयों व ब्राह्मणों का बना व पक्का मजातीय पूर्वजों) द्वारा स्थापित हों।
ब्राह्मणों, राजपूतों व बराबर की जातियों का बहण कर __ऐसा प्रतीत होता है कि सभी प्राचीनतर जैन जातियां हैं। मोला (tPboo) के अनुसार वर्गीकरण में इस लगभम एक ही समय बनी थी। दसवीं शताब्दी के पूर्व अग्रवालों मादि के साथ रखा गया है। जातियों के उल्लेख नहीं मिलते । वास्तव में इससे पूर्व ध्यान देने की बात है कि अधिकतर जातिय प्रात की एक-दो शताब्दियों के भारतीय इतिहास में एक घुघ- अवस्था में कृषक-क्षत्रिय ही होती है (जैसे प्रादिवा लका सा छाया हुआ है।
जातिया) । मतः अधिकतर वैश्य जातियों का दावा है। अधिकतर जातिया एक ही स्थान पर निवास करने वे क्षत्रिय थे, मनुचित नहीं कहा जा सकता। बुन्देन वाले जन-समुदाय से बनी हैं। देशव्यापी उथल-पुथल के 'असाटी' वैश्य, कृषक थे यह पब भी मान्यता होने से लोग अपने पूर्वजों का स्थान छोड़-छोड़कर अन्यत्र [(१) दमोह डिस्ट्रिक्ट गजेटियर १९०२ (२). बसने लगे लेकिन प्राचीन रीति-रिवाजो मे बंधे होने से सिस्टम भावद नार्दर्न इडिया]। अपने पुराने बघुषों में ही विवाह मादि सम्बन्ध करते लगता है पहले गोलापूर्व वैश्य (जैन) गोला रहे। अपने मूल स्थान प्रादि के नाम पर अपने समुदाय कृषक-क्षत्रिय एक ही रहे होगे और जैन धर्म मानते ।।