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गोलापूर्व जाति पर विचार
यशवंत कुमार मलैया, दमोह
भारत में निःसन्देह जाति-व्यवस्था का बड़ा महत्व प्रावा माना गया है) [देखिये (१) वर्धमान-पुराण-नवलहै। हर सामान्य भारतीय का खान-पान, रीति-रिवाज साह च देरिया, (२) परवार मूर-गोत्रावलो, (३) अनेप्रादि जाति-व्यवस्था के अनुसार ही शासित होते हैं। कान्त दिम० '७१, पृ० २१८] । यह उल्लेखनीय है कि भारतीय नरेशों का पतन, मुसलमानो का उत्थान व पतन, इन सब मे तारणपंथियों का (समैया' व 'चन्नागरे') ब्रिटिश राज और फिर स्वराज्य, इन सबने जाति-व्यवस्था उल्लेख नहीं है। [१३वीं शताब्दी से पूर्व इन का इतिहास पर अपना प्रभाव छोडा है। वस्तुतः जाति व्यवस्था एक नही है । अद्भुद "जीवन्त अवशेष" है - इसका इतिहास वास्तव मे नाम विचार --गोलापूर्व शब्द मे न तो समय के साथ बहुसंख्यक भारतीय समाज का इतिहास है।
परिवर्तन हुग्रा है और न ही इसका "सस्कृतीकरण" का जाति की एक कामचलाउ परिभाषा इस तरह दे प्रयास हुप्रा है। सस्कृतीकरण' के कारण मूल नाम के सकते हैं यह वह समूह है जिसके सदस्य आपस में ही विवाह निश्चय मे बहुधा नम हो जाता है। [सस्कृतीकरण के सम्बन्ध करते है। सैद्धान्तिक रूप मे अलग अलग जाति के उदाहरण देखिये : बघेरवाल का पारबाल, पुरवाड लोग अलग-अलग नस्ल (Roce) के होना चाहिए - (पुरवार) का पौरपट्ट, कछवाहा (राजपूत ) का 'कच्छपलावन यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। [इस विषय पर घट , 'कुशवाहा' ग्रादि] । "Costs System of Northern India"--- Blant 'गोला' किसी स्थान को सूचित करता है। इसी 1931" में ऊहापोह किया गया है ।
स्थान पर इन जातियों का नाम पडा है-गोलापूर्व, जाति को अन्वय 'कुल', वश', 'जाति' या कई बार गोलालारे (गोलाराडे) गोलसिंघारे और वणवधर्मी गोलाभूल से 'गोत्र' भी कहा गया हैं । अग्रेजों ने इसे 'Caste' पूर्व ब्राह्मण व गोलापूर्व क्षत्रिय । जैन-धातु-प्रतिमा लेख कहा है। जाति या उप-जाति शब्द का प्रयोग नया ।
सग्रह" में एक प्रतिमा स्थापक को 'गोलावास्तव्य' लिखा
___ गया है । [श्री अ. भा० गोलापूर्व डायरेक्टरी] | श्रवणजनों में चौरासी जाति है । "फलमाल पच्चीसी" बेगोला के एक लेख (शक सं० १०३७) मे गोला देश से में चौरासी नाम गिनाये गये है। लगभग प्राधी पहिचान प्राये गोल्लाचार्य का उल्लेख है। ["दिगम्ब रत्व और में प्राती है-दोष के बारे में उल्लेख सुनने में नही पाये। दिगम्बर मुनि" पृ० २६०']। यह वही गोला स्थान हो इन ८४ नामों का सकलन '८४' के मोह से किया गया सकता है। वर्षान पुराणकार ने 'गोयलगढ़' की कल्पना लगता है। राजस्थान मे ८४ वैश्य (जैन-अजैन दोनों) की थी-जिसे पाछ विद्वानों ने ग्वालियर माना था। जारियां मानी गई है। [वर्नल टाड] । एक अर्वाचीन परमानन्द शास्त्री का मत गोलाकोट का है। पर इन रचना "अथ श्रावकोत्पत्ति वर्णनम्" में खण्डेला (शेखा. स्यानो के आस-पास गोलापूओं के प्राचीन शिलालेख नहीं वाटी) के राजा गिरखण्डेल के अधीनस्थ ८४ शासकों मिलते । गोलापूर्व अन्वय के उल्लेख वाले प्राचीनतम द्वारा ८४ जाति के श्रावको की उत्पत्ति कही गई है। शिलालेख पुराने मोरछा व पन्ना स्टेट में व महोबा में [जैन सन्देश शोधांक-१७] । एक अन्य परम्परा माढ़े मिले है। अन्य स्थानो पर गोलापूर्वान्वय के स० १३०० बारह जातियों के नाम गिनाने की है (अग्रवालो को से पूर्व के लेख बिरसे ही हैं। जब भी पोरछा व पन्ना