________________
१२८, वर्ष २५, कि०३
भनेकात
का अनुपम चित्रण किया गया है। इसके कर्ता प्राचार्य तरह पं० दौलतराम जी को अन्य प्रादिपुराण, हरिवंश रविषेण है जा बिकम की पाठवीं शताब्दी के द्वितीय पुराण की टोकाएं है जिनका सक्षिप्त परिचय प्रागे दिया चरण में (वि०म० ७३३ मे हुए है। यह प्राप्रपनी गया है वे सब मधुर एवं प्रागल भाषा को लिए हुए हैं सानी का एक ही है। इस ग्रन्थ की टीका श्री ब्रह्मचारी और जिनके अध्ययन से हृदय गद्गद हो जाता है, मौर रायमल्ल के अनुरोध से स. १८२३ में समाप्त हुई है। श्रद्धा से भर जाता है। इसका प्रधान कारण टीकाकार की यह टीका जैन समाज में इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठन-पान्तरिक भद्रता, निर्मलता सुश्रद्धा और निष्काम साहित्यपाठन प्रायः भारतवर्ष के विभिन्न नगरों और गांवों में सेवा है। पंडित जी के टीका ग्रन्थों से जैन समाज का जहाँ-जहाँ जैन बस्ती है वहाँ के मन्दिरों, चैत्यालयों और बड़ा उपकार हा है और उनसे जैनधर्म के प्रचार में भी अपने घरो मे होता है। इस प्रथ को लोकप्रियता का सहायता मिली है। इससे बडा सबत और क्या हो सकता है कि इसकी दस- माविपुराण टीका--पडित दौलतरामजी ने प्रादिपुराण दस प्रतियां तक कई शास्त्र भडारो मे देखी गई है। सबसे कोमा जयपर नगर में की है। उस समय जयपर में महत्व की बात तो यह है कि इस टीका प्रथ के अध्ययन से
जैन धर्म और जैन सस्कृति का विशेष प्रचार था। शास्त्र अनेकों ने अपने को जैन धर्म में प्रारूद किया है। उन सब मे
सभा में जब प्रादिपुराण पर प्रवचन हमा। तब सामियों स्व० पूज्य बाबा भागीरथ जी वर्णी का नाम खास तौर
ने उसकी भाषा करने की प्रेरणा की। कवि के मित्र उस से उल्लेखनीय है जो अपनी आदर्श त्याग वृत्ति के द्वारा
समय रतनचन्द दीवान थे, जो ज्ञानो और जिनमार्ग के जन समाज में प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके है। प्राप
श्रद्धानी थे, जो राजद्वार के सेवक थे। कुछ साभियो ने अपना बाल्यावस्था में जन धम क प्रबल विराधा य भार भी प्रेरणा की, उनमें रतन चन्द जी मुघडिया पोर पडित उसके अनुयायियों तक को भी गालियाँ देत थे। परनु टोडरमल जी के दोनो पुत्र हरिचन्द और गुमानी लाल दिल्ली में जमना स्नान को रोजाना जाने समय एक जैन और बाल ब्रह्मचारी देवीदास गोधा का नाम विशेष सज्जन का मकान जैन मदिर के समीप ही था, वे प्रति- उल्लेखनीय है। उस समय वहीं रायमल्ल जी साधर्मी दिन प्रातः काल पद्म पुराण का स्वाध्याय किया करते थे। को अध्यात्म शनी का प्रचार था। टीकाकार ने सबका एक दिन मापने खड़े होकर उसे थोड़ी देर सुना और भावना को साकार करने के लिए प्रादिपुराण की टीका विचार किया कि यह तो रामायण की ही कथा है मै स०१८२४ प्राश्विन कृष्णा एकादशी शुक्रवार के दिन उमे जरूर मुनगा और पढ़ने का अभ्यास भी करूगा। जयपुर में बनाकर समाप्त की है। उस दिन से रोजाना उसे सुनने लगे और थोडा-थोडा पंडित दौलताम जी ने स्वामि कातिकेयानुप्रेक्षा की करने का अभ्यास भी करने लगे। यह सब कार्य उन्हीं टम्बा टीका इन्द्रजीत के बोध कराने के लिए सबत् १८२६ सज्जन के पास किया। प्रब पापकी रुचि पढ़ने तथा जैन में ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन पूर्ण की है, जैसा कि धर्म का परिचय प्राप्त करने की हई और उसे जानकर उनकी निम्न प्रशस्ति बाक्यो में प्रकट है :जैनधर्म मे दीक्षित हो गये । वे कहते थे कि मैंने पद्मपुराण
सुखी होहु राजा प्रजा, सुखी होई चौसंग। का अपने जीवन में कई बार स्वाध्याय किया है, यह बड़ा
पावहु शिवपुर सज्जना, सो पद सदा प्रलंध ।। महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस तरह न मालम उक्त कथा ग्रन्थ इन्द्रजीत के कारने, टवा जु बाला बोध । और उसकी टीका से जैनधर्म का प्रभाव तथा लोगों की भाष्यो दौलतराम ने, जाकर होय प्रबोध ।। श्रद्धा का कितना संरक्षण एवं स्थिरीकरण हमा है। इसी
१. अट्ठारह स सम्वता ता ऊपर चौवीस । १. सवत् अष्टादश सत जान, ता ऊपर तेईस बखान । कृष्ण पक्ष असोज को पुष्प नक्षत्र वरीश ॥ शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमास रोहिणी रिखिसार ॥ शुक्रवार एकादशी पूरण भयो ये ग्रन्थ । -पद्मपुराण टीका प्रशस्ति
-मादिपुराण प्रशस्ति