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पं० दौलतराम कासलीवास
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विर्ष मेरे भुज हाथी के संघ समान हते, उरस्थल प्रबल इन्द्रायण के फल समान हैं, संसारी जीव इनको पाई है था। पर जाँच गज बन्धन तुल्य हुती; पर शरीर दृढ सो बडा प्राश्चर्य है । जे उत्तम जन विषयों को विष तुल्य हुना। अब कमनि के उदय करि शरीर अत्यन्त शिथिल आन करि त है पर तप कर है वे धन्य है। अनेक होय गया। पूर्व ऊंची नीची धरती राजहंस ही न्याई विवेकी जीव पुण्याधिकारी महाउत्साह के धरण हारे जिन उलंघ जाता, मन वाछित स्थान पहुँच जाता । अब स्था- शासन के प्रसाद से प्रबोध को प्राप्त भए हैं। मैं कब इन नक से उठा भी न जाय है, तम्हारे पिता के प्रमाद करि विषयों का त्याग कर स्नेह रूप कीच से निकस निवृत्ति मैं यह शरीर नाना प्रकार लड़ाया था सो प्रब कुमित्र की का कारण जिनेन्द्र का मार्ग का प्राचरण करूंगा। मैं पृथ्वी न्याई दुख का करण होय गया। पूर्व मुझे वैरिनि के की बहुत सुख से प्रतिपालना करी पर भोग भी मनवाक्षित विदारने की शक्ति हती सो प्रब लाठी के प्रवलम्बन करि भोगे? पर पत्र भी मेरे महापराक्रमी उपजे । अब मैं महाकष्ट से फिर हूँ। बलवान पुरुषनि करि खीचा जो भी वैराग्य मे विलम्ब करूं तो यह बड़ा विपरीत है । हमारे धनष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है पर मस्तक के वंश की यही रीति है कि पुत्र को राजलक्ष्मी देकर वैराग्य केश अस्थि समान श्वेत हो गए हैं और मेरे दांत गिर गए, को धारण कर महाघोर तप करने को वन मे प्रवेश करे । मानों दारीर का प्राताप देख न सके। हे राजन् ! मेरा ऐसा चिन्तवन करि राजा भोगनि ते उदास चित्त कई समस्त उत्साह विलय गया, ऐसे शरीर करि कोई दिन एक दिन घर में रहे।" जीऊँ हूँ। सो बडा प्राश्चर्य है। जरा से अत्यन्त जर्जर
-पद्मपुराण टीका, पृ० २६५-६ मेरा शरीर साँझ-सकारे विनश जायगा । मोहि मेरी काया
इसमे बतलाया गया है कि राज दशरथ ने किसी को सुध नाहीं तो और सुध कहाँ से होय । पके फल समान
अत्यन्त वृद्ध खोजे के हाय (गधोदक जैसी) कोई वस्तु जो मेग तन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मोहि रानी के कई के पास भेजी थी. जिसे वह शरीर की प्रस्थिमृत्यु का ऐसा भय नही जैसा चाकरी चूकने का भय है। रता वश देर से पहुँचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य मर मर प्रापको प्राज्ञा का ही अवलम्बन हे प्रार अवलम्बन रानियों के पास पहले पहें च चकी थी। अतएव केकई ने नाहीं : शरीर की प्रशक्तिता करि विलम्ब होय, ताक राजा दशरथ से शिकायत की। तब राजा दशरथ उस कहा करूं। हे नाथ ! मेरा शरीर जरा के प्राचीन जान खोजे पर अत्यन्त कुद्ध हुए। तब उस खोजे ने अपने शरीर कोप मत करो, कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजा के राजा की जर्जर अवस्था का जो परिचय दिया है उससे राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोल के लगाय चिन्तावान दशरथ को भी सांसारिक भोगों से उदासीनता हो गई। होय विचारता भया, अहो ! यह जल के बुद-बदा समान इस तरह इन कथा पुराणादि-साहित्य के अध्ययन से प्रात्मा प्रसार शरीर क्षणभगुर है, पर यह यौवन बहुत विभ्रम अपने स्वरूप को प्रोर सम्मुम्ब हो जाता है। को धरै संध्या के प्रकाश समान अनित्य है। पर अज्ञान ऊपर के उद्धरण से जहाँ इस ग्रंथ की भाषा का का कारण है। बिजली के चमत्कार समान शरीर पर सामान्य परिचय मिलता है वहां उसकी मधुरता एवं सम्पदा तिन के अर्थ अत्यन्त दु:ख के साधन कर्म यह रोचकता का भी प्राभास हो जाता है। पं० दौलतराम जी प्राणी कर है। उन्मत्त स्त्री के कटाक्ष समान चचल, सर्प ने पाच-छह प्रथों को टीका बनाई है। पर उन सबमे सब के फण समान विष के भरे, महाताप के समूह के कारण से पहले पुण्यास्रव कथा कोष को और सबसे बाद मे हरिये भोग ही जीवनकों ठगे हैं तात महाठग है, यह विषय वंश पुराण की टीका बनकर समाप्त हुई है। प्रर्थात् स. बिनाशीक, इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढों को सुख- १७७७ मे लेकर १८२६ तक ५२ वर्ष का अन्तराल इन रूप मास है, ये मूढ जीव विषयों की प्रभिलाषा कर हैं। दोनों टीका-ग्रंथों के मध्य का है। पर इनको मनवाछित विषय दुष्प्राप्य है। विषयो के सुख इस टीका ग्रन्थ का मूल नाम 'पद्मचरित' है। उसमें देखने मात्र मनोज्ञ है, पर इनके फल अतिकटुक हैं, ये सुप्रसिद्ध राम, लक्ष्मण पौर सीता के जीवन की झांकी