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अनेकान्त
१२६, वर्ष २५, कि०३
के बालक हो जाने पर जयपुर की राजगद्दी के साधक बतलाया है। वे विवेकी, क्षमावान, बाल अपचारी उत्तराधिकार का वाद-विवाद छिड़ा। तब जयपुर नरेश दयालु पोर पहिसक थे। उनमें मानवता टपकती थी। वे ईश्वरी सिंह जी को विषपान द्वारा देहोत्सर्ग करना पड़ा जनधर्म के श्रद्धानी थे भोर उसके पवित्रतम प्रचार था; क्योंकि उनमें इतनी सामर्थ्य नही थी कि वे मेवाडा अभिलाषा उनकी रग-रग में पाई जाती यो पौर धीश राणा जगत सिंह जी और महाराष्ट्र नेता होल्कर
भर उसके प्रचार का प्रयत्न भी करते थे। प्राचीन जैन
ग्रन्थों के उद्धार के साथ उनकी हिन्दी टीकानों के कराने के समक्ष विजय प्राप्त कर सके। अतएव उन्हें मजबूर
रत होकर आत्मघात में प्रवृत्त होना पड़ा था । ईश्वर तथा उन्हें अन्यत्र भिजवाने का प्रयत्न क सिंह जी के बाद माधव सिंह जी को जयपुर समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों को तत्व चर्चा में उन्हें बह
का का उत्तराधिकार प्राप्त हमा। माधव सिंह जो रस प्राता था और वे उससे पानन्द विभोर हो उठते के सत्तारूढ़ हो जाने पर सं० १८१८ मे या उसके । स० १८२१ में लिखी एक निमंत्रण पत्रिका में
तो
उनको कर्तव्य परायणता प्रौर उनकी कर्तव्य परायणता और लगन का सहज ही प्रामास
: कुछ समय पश्चात वे उदयपुर से जयपुर मा गये होगे। क्योंकि उनका बहा का कार्य समाप्त हो गया था। और हो जाता है। वे विद्वानों को कार्य के लिए स्वय प्रेरित
करते थे और दूसरो से भी प्रेरणा दिलवाते थे। उनकी जिनके वे मंत्री थे वे अब जयपुराधीश थे। तब मंत्री का
प्रेरणा के फलस्वरूप जो मधुर फल लगे, उससे पाठक उदयपुर में रहना किसी तरह भी सम्भव प्रतीत नहीं
परिचित ही है। होता । अतः ५० दोलनराम जी उदयपुर से जयपुर पाकर
पापुराण टोका--पुण्यास्रव कथा कोष, क्रिया कोष, वहाँ कार्य करने लगे होंगे।
अध्यात्म बारह खड़ो और वसुनन्दि के उपासकाध्य___संवत् १८२१ की ब्र० रायमल्ल जी की पत्रिका
यन की टवा टीका, जीवघर चरित्र, तत्वार्थ की सूत्र टन्या से ज्ञात होता है कि उस समय उसमें पद्मपुराण की २०
टीकापौर सार समुच्चय टीकाके अतिरिक्त श्रीपाल चरित्र, हजार श्लोक प्रमाण टीका के बन जाने की सूचना दी हुई
श्रेणिक चरित तथा विवेकविलास परमात्मप्रकाश टीकर है। इतनी बड़ी टीका के निर्माण में चार पाँच वर्ष का
प्रादि की रचना की। यह सब प० दौलतराम जी की मधुर समय लग जाना कुछ अधिक नही है। टीका का शेष भाग
लेखनी का प्रतिफल है। आज पडित जी अपने भौतिक बाद मे लिखा गया और इस तरह वह टोका वि० स०
शरीर मे नही है परन्तु उनकी अमर कृतियाँ जन-धर्म के १९२३ मे समाप्त हुई है । यह टीका जयपुर में ही ब्रह्म
प्रचार से प्रोत-प्रोत हैं, उनको भाषा बड़ी सरल तथा चारी रायमल्ल जो की प्रेरणा व अनुरोध से बनाई गई
मनमोहक है । इन टीका ग्रन्थों की भाषा दूढाहड़ देश की है। रायमल्ल जी एक निष्पृह त्यागी और चरित्रनिष्ठ व्यक्ति
तत्कालीन हिन्दी गद्य है। जो व्रजभाषा के प्रभाव से थे। धर्म प्रोर साहित्योद्धार को उनकी लगन पहणीय
प्रभावित है, उसमें कितना माधुर्य और कितनी सरलता है थी। उनका त्याग विवेक पूर्वक था, वे दयालु और परोप
यह उसके अनुशीलन से सहज ही ज्ञात हो जाता हैं। कारी थे। पं० दौलतराम जी ने उनका निम्न वाक्यो मे
उनकी भाषा उन्नीसवीं शताब्दी की परिमार्जित और उल्लेख किया है
मुहावरेदार है । यह उसके निम्न उदाहरण से स्पष्ट हैरायमल्ल साधर्मा एक, जाके घट में स्व-पर-विवेक ।
हे देव ! हे विज्ञान भूषण ! अत्यन्त बृद्ध अवस्था बयावान गुणवन्त सुजान, पर उपगारी परम निधान ।।
" करि हीन शक्ति जो मैं सो मेरा कहा अपराष? मो पर इस पद्य में ब्रह्मचारी रायमल्ल के व्यक्तित्व का आप क्रोध कगे सो मैं क्रोध का पात्र नाहीं, प्रथम प्रवस्था कितना ही परिचय मिल जाता हैं और उनकी विवेक १. रायमल्ल साधर्मी एक, धर्मसधैया सहित विवेक।
भमा और दया मादि गुणों का परिचय प्राप्त हो सो नाना विध प्रेरक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो । जाता है। पं० टोडर मल जी ने उन्हें विवेक से धर्म का
-लब्धिसार प्रशस्ति