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पं० दौलतराम कासलीवाल
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पं. टोडरमल जी के लगभग ५० वर्ष की उम्र मे और दीवान रतनचन्द्र के भाई वधीचन्द जी दीवान, दिवगत हो जाने पर, पुरुषार्थसिद्धयुगाय की उनकी अधरी जो पडित दौलतराम जी के मित्र थे, उनकी प्रेरणा और टोका को भी प्रापने रतन चन्द जो दीवान के अनुरोध से सहयोगी से कवि ने हरिवंश पुराण की टीका सं० १८२६ स. १८२७ मे पूर्ण किया है ।
चंत्र शुक्ल पूर्ण मामी के दिन समाप्त की।
टीकाकार दोनत राम जी ने धर्म और साहित्य की हरिवंशपुराण टोका
जिस लगन से सेवा की है वह अनुकरणीय है। टीका की * रायमल्ल जी जयपुर से जब मानव देश में
भापा मुहावरेदार और मधुर है' ढुढारी भाषा होते हुए गए। वहां उन्होंने पद्म पुराण और प्रादि पुराण की
भी सरल है। विवेक विलास उनकी छोटी से पद्य बद्ध' टीका पढ़कर सुनाई। जिससे वहां के श्रावकों में धर्म रुचि कृति है। उसके दोहा बड़े प्रिय है। जिन ग्रथों का परिअधिक बढ़ी। उस समय वहाँ के लोगों ने अ० रायमल्ल जी चय इस लेख मे नही दिया जा सका, उनकी प्रतियाँ से कहा कि पाप हरिवश पुराण की टीका दौलत राम जी लेखकको देखने को नहीं मिली अन्यथा उनका परिचय से बनवाइये । तब रायमल्ल जी ने अपने मित्र दौलत राम अवश्य दिया जाता। पडित जी की सबसे पहली जी को पत्र लिखा, और प्रेरणा की कि पाप हरिवश टीका सं० १७७७ की है। उसके बाद सं० १८२६ पुराण की टीका और बनाइए, जिससे सब साधर्मी जन उसे ता साहित्य की जो महान् सेवा की है, वह महत्वपूर्ण है। पढ़कर लाभ उठा सके, और चैत्यालय में सब सामियो
सामियो मे विद्वानों के प्रति समाज का बहुमान भोर मादर ने भी प्रेरित किया कि आप हरिवंश की टीका बनायो नितान्त आवश्यक है। टीकाकार का अधिकांश
२. रायमल्ल के रुचि बहुत, व्रतक्रिया परवीन । स हित्य अभी तक अप्रकाशित है। समाज का कर्तव्य है गये देश मालव विषे, जिनशासन लवलीन ।।८।। कि वह उसे प्रकाशित करे। तहां सुनाया ग्रंथ उन, भाषा प्रादिपुराण ।
३. अठारह सौ सवता तापर घर गुणतीस । पद्मपुराणादिक तथा, तिन को कियो बखान ।।६।। वार शुक्र पून्यो तिथि, चैत्र मास रुति ईस ॥२७ हरिवंशपुराण प्रशस्ति
-हरिवश पुराण प्रशस्ति
धर्म की महिमा धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है और उससे धर्म की प्राप्ति होती है। फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है ?
धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है।
नेक काम करने में तुम लगातार लगे रहो, अपनी पूरी शक्ति और सब प्रकार से पूरे उत्साह के साथ उन्हें करते रहो।
अपना मन पवित्र रक्खो, धर्म का समस्त सार बस एक इसी उपदेश में समाया हुआ है। वाकी और सब बातें कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र है।
ईर्षा, लालच, क्रोध और अप्रिय वचन इन सबसे दूर रहो। धर्म प्रगति का यही मग है।
यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्ममार्ग का अवलम्बन करूँगा। बल्कि अभी बिना देर लगाये ही, नेक काम करना शुरु कर दो; क्योंकि धर्म हो वह वस्तु है जो मौत के दिन तुम्हारा साथ देने वाला अमर मित्र होगा।
-तमिलवेद