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जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत
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राण में श्री रविषेणाचार्य ने ब्राह्मणों को 'सूत्र सम्बन्ध में अभिमत देने का लोभ नहीं कर सकता। स्व. ..' (गने में तागा डालने वाले जैसे शब्दों से उल्ले- पं० जुगल किशोर जी मुख्तार ने यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में वित किया था। इससे ज्ञात होता है कि उनके समय में शास्त्रीय उद्धरणों पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष प्रकट यज्ञोपवीत को कोई मान्यता नहीं थी, यदि मान्यता होती किया था-"ऐसी हालत में यज्ञोपवीत को जैन धर्म का तो सत्रधारी ब्राह्मणों को ऐसे हीनता बोधक शब्दों से कोई प्रावश्यक प्रंग नहीं कहा जा मकता पोर न यह जैन सम्बोधित नही करते। ,
संस्कृति का ही कोई प्रावश्यक प्रग जान पड़ता है।" प्रादि पुराण के अनुसार भरत ने यज्ञोपवीत के सात
-अनेकांत वर्ष ६ कि.१ घागों का कथन किया था। किन्तु प्रब तीन घागे का यज्ञो
घवलादि महान् ग्रंथों के संपादक पं० फूलचन्द्र जी पवीत बनाया जाता है, कही-कहीं विवाहित पुरुष स्त्री की जो सिद्धान्त शास्त्री ने यज्ञोपवीत के सम्बन्ध मे उपलब्ध पोर से भी एक अधिक जनेऊ पहनते हैं, इसे कब पहनना प्रमाणों पर विचार कर यह निष्कर्ष व्यक्त किया हैचाहिए, क्या रक्षाबन्धन पर्व पर इसे बदलना चाहिए, "जैनधर्म मे मोक्ष की दृष्टि से तो यशोपवीत को स्थान प्रादि ऐसे विषय है जिन पर कोई एक मत नहीं है । इन है ही नहीं। सामाजिक दृष्टि से भी इसका कोई महत्त्व सबके सम्बन्ध में प्रायः ब्राह्मणों में प्रचलित परम्परा अप- नही है । इसे धारण करना और इसका उपदेश देना नाना निरापद समझा जाता है । मैं समझता हूँ कि यदि मात्र ब्राह्मण धर्म का अनुकरण है।"........... प्रादि पुराणकार इसे श्रावक के लिए आवश्यक मानते तो "इससे स्पष्ट है कि यज्ञोपवीत जैन परम्परा में कभी वे इन विषयों पर अवश्य प्रकाश डालते । श्रावक की ली भी स्वीकृत नहीं रहा है और यह उचित भी है क्योंकि हुई प्रतिमानों की संख्या के अनुसार घागों की संख्या मोक्ष मार्ग में इसका रंच मात्र भी उपयोग नहीं है तथा होना भी किसी श्रावकाचार में नहीं बताया गया है। जिससे समाज में ऊँच-नीच का भाव बद्ध मूल हो ऐसी सामावस्तुतः परिग्रड कम करने वाला श्रावक इन घागों का जिक व्यवस्था को भी जैन धर्म स्वीकार नहीं करता।" परिग्रह क्यों बढ़ायेगा जो किसी प्रकार से भी सयम का
-वर्ण जाति और धर्म से साधक नही है। कुछ भाइयों ने प्रादि पुराण के उक्त इस प्रकार विचार करने से यह सिद्ध होता है कि प्रसंगो की सही स्थिति न जान कर यह मान लिया कि
सूत वाला यज्ञोपवीत जैनमार्गानुसारी मोक्ष मार्ग के राही जनेऊ ब्रह्मचारी के लिए मावश्यक है। किन्तु यह भी धावक के लिए किसी भी अवस्था में प्रावश्यक नहीं है उक्त अथ या अन्य प्रामाणिक ग्रंथों से सिद्ध नहीं होता। चाहे वह पूजा प्रक्षाल करे, चाहे दान करे या चाहे व्रत प्रादि पुराण के उत्तरवर्ती कुछ लेखकों ने भरत के कथनों पाले। जो इसके बिना किसी को पूजा प्रक्षाल या दानादि का मर्म बिना समझे एवं लोक में जनेऊ धारियों को करने से वंचित करते हैं । वे शास्त्रानुकूल कार्य नहीं करते प्रतिष्ठा देखकर अपने शास्त्रों में यज्ञोपवीत का उल्लेख हैं। यही कहा जा सकता है। किया है, एवं ब्राह्मणों में प्रचलित तत्सम्बन्धी रीति- यदि कोई चाबी बांधने या शरीर में खाज खुजाने रिवाजों को अपने ग्रंथ में लिखकर उन पर जनत्व की के लिए यज्ञोपवीत पहने या अपने प्रापको व्रतधारी का मुहर लगाना चाहा है किन्तु जब यज्ञोपवीत का मूलाधार दिखावा करने के लिए भी पहने तो वह स्वेच्छा से पहन ही शास्त्र सम्मत नहीं है तब उसके लिए अनुकरणवर्ती सकता है। किन्तु कोई दूसरों को इसे रत्नत्रय या व्रत के उत्तर कालीन अन्य कथनों की कोई प्रामाणिकता नहीं मिल
प्रामाणिकता नही चिन्ह रूप में पहनने के लिए बाध्य करे तो उसे शास्त्रा. नहीं रहती है।
लोक में यज्ञोपवीत की उक्त स्थिति भली प्रकार समझ इस युग के प्रसिद्ध दो विद्वानों का यज्ञोपवीत के लेनी चाहिए।