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१८६, वर्ष २५, कि०४
अनेकान्त
ऐसे श्लोक बनाये गये यथा
से सजे हुए रूप में 'ब्रह्मसूत्र' युक्त बताया है वह रल. सर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विषि:, जटित स्वर्णमय हार ही हो सकता है। पत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रत दूषणम् ।
प्रतः यह स्पष्ट हो गया कि भोगभूमि में उक्त 'ब्रह्म समन्वय की दृष्टि या बैर विरोध कम करने की दृष्टि स्त्र' व्रत चिन्ह सूचक' माना जाने वाले यज्ञोपवीत से ऐसे इलोकों का महत्व हो सकता है किन्तु धार्मिक का परिचायक नहीं है अपितु केयूर, मुकुट प्रादि की तरह कार्यों में ऐसे श्लोकों को अपनाने में कोई भौचित्य का प्राभूषण ही होगा। कई बार देखा जाता है कि मूल नही है।
ग्रन्थ में प्रयुक्त ब्रह्मा सूत्र 'व्रतसूत्र' 'सूत्र-चिन्ह' शब्दों का प्रादिपुराण में कुछ ऐसे कथन पाये हैं जिनमें वेप. पर्यायवाची 'यज्ञोपवीत' शब्द दिया जाता है। उसे स्पष्ट भूषा का वर्णन करते हुए व्रतसूत्र, यज्ञोपवीत प्रादि प्रादि रूप से प्राभूषण नही बताया जाता। शब्द पाये हैं और उनके माघार पर कुछ लोग सूतवाली इसलिए सूत के यज्ञोपवीत के समर्थक साधारण यज्ञोपवीत की परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं।
व्यक्तियो को प्रादि पुराण के उदाहरण देकर समझा सकते भगवान ऋषभदेव का पर्व १६, श्लोक २३५ मे निम्न है। देखो,ऋषभदेव, भरत प्रादि ने यज्ञोपवीत पहन रखा वर्णन है
था। ऋषभदेव, भरत या किसी भी अन्य महापुरुष कंठे हार लता विभ्रत कटि सूत्रं कटी तले, का यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन नही मिलता, फिर उनके ब्रह्मसूत्रो पवीतांगं सगांगोषमिवाद्विराट् ।
सूत का यज्ञोपवीत क्यो होता? इसी प्रकार भरतेश्वर का वर्णन निम्न श्लोक मे किया यज्ञोपवीत का मूलाधार माने जाने वाले प्रादिपुराण गया है
के तत्सम्बन्धी प्रसगो की परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो अंसावलंबिना ब्रह्मसूत्रेणा ऽसौ वषे श्रियम्, जाता है कि यज्ञोपवीत धावक के लिए प्रावश्यक नही हिमाद्रिरिव गांगेन स्रोत सोत संग संगिना। है। अभिषेक पाठ के श्लोक से भी सिद्ध हो गया है कि
वस्तुतः उक्त ब्रह्मसूत्र एक प्राभूषण ही है जैसा कि उसमें प्रयुक्त 'यज्ञोपवीत' शब्द आभूषण विशेष का द्योतक पहले भी अभिषेक पाठ के प्रसंग मे यज्ञोपवीत शब्द का है इसलिए उस पाठ के प्राघार पर पूजा प्रक्षाल या विधान अर्थ माभूषण सिद्ध किया था। स्वयं जिनसेनाचार्य ने भी करने के लिए सूत वाली यज्ञोपवीत पहनना अावश्यक "ब्रह्मसूत्र" को भोग भूमियों का शाश्वत माभूषण कहा है- नहीं है, हाँ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा विधान मे इन्द्र बनने
केयरं ब्रह्मसत्रं च तेषां शश्वभिषणमा को उसकी सजावट हेतु मुकुट, कुंडल प्रादि की तरह यज्ञोयह तो स्पष्ट ही है कि भोग भूमि में उक्त ब्रह्मसूत्र व्रत
पवीत (सोने की कठी जैसा प्राभूषण) पहनाया जा सकता चिह्न सूचक यज्ञोपवीत का परिचायक नहीं है, अपितु। केयूर मादि की तरह का प्राभूषण ही होगा।
व्रत चिन्ह का सूचक माना जाने वाला सूत का धागा __ पद्मपुराण के कर्ता प्राचार्य रविषेण भी सूत्र चिह्न
नहीं पहनाना चाहिए, क्योकि इन्द्र तो भवती होता है। को माभूषण रूप में ही मानते प्रतीत होते हैं। उन्होंने
जिनसेनाचार्य के प्रादिपुराण के आधार पर भी इसका विशेषण 'सरल चामीकरमय' दिया है । इसका अर्थ
इसकी रचना के बाद यज्ञोपवीत का प्रचार नहीं हुमा है 'रत्न युक्त स्वर्णमय सूत्र चिन्ह'। इन शब्दों का फलि- क्योकि इसे कभी जनत्व का चिन्ह नहीं माना गया। यह तार्थ रल अणित स्वर्णमय हार के सिवा क्या हो ब्राह्मणों का ही चिन्ह माना जाता है। सकता है।
मध्यकाल में कवि बनारसी दास जी को डाकुमों के इसे कहीं सूत्र-चिन्ह, कहीं व्रत सूत्र कहीं ब्रह्म सूत्र सामने अपने को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए जनेऊ बना कहा है किन्तु इसका अभिप्राय 'रत्न जटित स्वर्णमय हार' कर पहनना पड़ा था। इससे सिद्ध होता है कि उनके समय ही होगा। भरत चक्रवर्ती या राजा ऋषभदेव को वेषभूषा में यज्ञोपवीत ब्राह्मणों का चिन्ह माना जाता था।