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न धर्म एवं यज्ञोपवीत
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हे भगवन ! मैंने मापके द्वारा कहे हुए उपासकाध्ययन इससे स्पष्ट हो गया कि भगवान ऋषभदेव ने भरत के उक्त सूत्र के मार्ग पर चलने वाले तथा श्रावकाचार में निपुण कार्य को उचित नहीं कहा । केवली भगवान ऋषभदेव के ब्राह्मण निर्माण किए हैं।२०। हे विभो, मैंने इन्हें ग्यारह उक्त समाधान के पढ़ने से भरत द्वारा कथित गर्भाव प्रतिमानों के विभाग से व्रतों के चिह्न स्वरूप (व्रतचिह्न- यादि क्रियानों का कोई मूल्य नहीं रहता मोर न बे सूत्र) एक से लेकर ग्यारह तक यज्ञोपवीत दिए हैं ।(३१) श्रावक के लिए विधेय या अनिवार्य ठहरती हैं। हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टि को साक्षात् उत्पन्न करने भरत ने 'श्रावकाध्याय सग्रह' का जो उल्लेख किया है वह वाले प्रापके विद्यमान रहते हुए भी "मैंने अपनी बड़ी ऐसा ही उल्लेख है जैसे कोई भी नया कार्य शुरू करना मूर्खता से यह काम किया है।" (३२) हे देव, इन ब्राह्मणों चाहता है वह पहले उसको प्राचीनता सिद्ध करने का की रचना में दोष क्या है, गुण क्या है और इनकी रचना प्रयत्न करता है। भगवान ऋषभदेव द्वारा ब्राह्मणों की योग्य हुई अथवा नहीं इस प्रकार झूला के समान झूलते सृष्टि को 'दोष का बीज रूप' एवं यज्ञोपवीत को 'पापसूत्र' हुए मेरे चित्त को किसी निश्चय में स्थित कीजिए।(३३) बता देने का परिणाम यह हुमा कि जैन परम्परा मे इन
भगवान् ऋषभदेव ने भरत की उक्त शका का समा- सस्कारों एवं यज्ञोपवीत मादि को कोई स्थान नही मिला धान करते हुए कहा-हे वत्स, तूने जो धर्मात्मा द्विजों की -क्योंकि भरत के किसी भी कार्य को धर्म क्षेत्र मे पूजा की सो बहुत अच्छा किया परन्तु इसमे कुछ दोष है प्रामाणिकता एवं मान्यता नही मिल सकती है। यदि उसे तू सृन ।४५॥ हे प्रायुष्यमन् ! तूने जो गृहस्थों की भगवान ऋषभदेव मावश्यक समझते तो वे ही वैश्यरचना की है सो जब तक चतुर्थकाल की स्थिति रहेगी क्षत्रियों को यज्ञोपवीत देते, किन्तु उन्होने नही दिया। इससे तब तक तो उचित पाचार का पालन करेंगे परन्तु जब यह सिद्ध होता है कि वे इसे पावश्यक नहीं मानते थे । कलियुग निकट पा जायगा, तब ये जातिवाद के अभियान
जिनसेनाचार्य ने भरत के सभी उल्लेखनीय कार्यों मे सदाचार से भ्रष्ट होकर मोक्षमार्ग के विरोधी बन ।
का उल्लेख किया है, उसी प्रसग में ब्राह्मणों की स्थापना जावेगे।४६। पचम काल में ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं इस प्रकार जाति के मद से युक्त होकर केवल धन की।
एवं तत्सम्बन्धी मौचित्य की शका एव भगवान के समा. माशा से खोटे-खोटे शास्त्रों के द्वारा लोगों को मोहित
घान प्रादि का उल्लेख किया है किन्तु इसका अर्थ यह करते रहेगे।४७॥ "(पापसूत्र) पाप के चिह्न स्वरूप यशो
नहीं कि भरत के सभी कार्य विघय हो जायें। प्राचार्यश्री पवीत को धारण करने वाले" मोर प्राणियों के मारने में ने अपने ग्रन्थ में प्रसगवश हिंसा, घृत, मास प्रादि का भी सदा तत्पर रहने वाले ये धूतं लोग भागामी युग में समी
का वर्णन किया है किन्तु इसका अर्थ यह नही है कि ये पनिचीन मार्ग के विरोधी होंगे।५३। इसलिए यह ब्राह्मणों की । रचना" यद्यपि पान दोष उत्पन्न करने वाली नहीं है कहीं-कहीं भ्रमवश या जान-बूझकर बाहरी अनुकरम तथापि प्रागामी काल में खोटे पाखण्डमतों की प्रवृत्ति के परवर्ती कुछ लेखकों ने उसके ३८वे, ३६वें एव ४०वें करने से "दोष का बीज रूप" है ।४।।
पर्व के प्राधार पन तिरेपन क्रियामों (यज्ञोपवीतादि) को . भरत की ब्राह्मणों की स्थापना के मोचित्य सम्बन्धी
विधेयरूप में मान लिया; किन्तु यह सब जिनसेनाचार्य को पाका एवं भगवान ऋषभदेव के उक्त समाधान से स्पष्ट प्रभीष्ट नहीं था जैसा कि भगवान ऋषभदेव के कथन से हो जाता है कि भरत ने ब्राह्मणों की स्थापना में भगवान सिद्ध होता है। भ्रम या अनुकरण या दबाव के कारण के शब्दों में "दोष का बीज रूप" कार्य किया था। भरत किसी क्रिया
किसी क्रिया को विधेय या मनिवार्य ठहराना मनुने स्वयं भी कहा कि मैंने यह कार्य 'बड़ी मूर्खता से किया चित है। है। भरत ने जिस यज्ञोपवीत 'प्रतचिह्न सूत्र' का विशेषन कभी-कभी भ्रम या अनुकरण या पबाव के कारण दिया उसे भगवान ऋषभदेव ने "पापसूत्र" की संज्ञा दी। लौकिक क्रियाएं अपनाई गई, उन्हें बैन रूप देने के लिये