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________________ १८४ वर्ष २५, कि.४ अनेकान्त दो भव नहीं, तीन-तीन भवों के काल को लिए हुए हैं। सब वेशभूषा विद्याध्ययन की समाप्ति के बाद छुट जाते ये संस्कार प्रथम मनुष्य भव में प्रारंभ होकर दूसरे भव हैं। प्राज विद्यार्थी काल में न मुंज की डोर पहराई जाती में इन्द्र पद की प्राप्ति तथा तीसरे भव में चक्रवर्ती पद है, न सिर मुंडन कराया जाता है, न भिक्षा मंगाई जाती की प्राप्ति के साथ-साथ अरहत एव निर्वाण पद की प्राप्ति न ब्रह्मचर्य की साधक अन्य प्रतिज्ञामों को कराया जाता तक चलते हैं। कोई व्यक्ति इस प्रकार तीन भव पाने की है फिर केवल यज्ञोपवीत पहनाने पर जोर क्यों दिया जाता कल्पना या इच्छा तो कर सकता है किन्तु इसी प्रकार भव है ? विद्याध्ययन-काल के बाद जब यह छूट जाते हैं फिर प्राप्त हो जायें यह असम्भव नही तो प्रत्यन्त दुर्लभ गृहस्थावस्था में इसे पहनने का कुछ भौचित्य नहीं अवश्य है। रहता। प्रथम भव में गर्भ से लेकर विद्याध्ययन काल के ५. कोई कहे कि यह रत्नत्रय का सूचक है सो यह उपनीति, व्रतचर्या, विवाह प्रादि सस्कार बताए हैं, किन्तु धागा प्रात्मीय गुण रूप रत्नत्रय का सूचक कैसे हो सकता तीसरे भव में उस व्यक्ति के इन संस्कारों का कोई वर्णन है? प्रात्मीयगुण ही रत्नत्रय के सूचक बन सकते हैं। जड़ नहीं किया गया है। क्या तीसरे भव में ये सब संस्कार धागा तो कोई भी पहन सकता है। क्या इस जड़ धागे को नहीं होने हैं ? पहनने से रत्नत्रय हो जाता है ? नहीं। क्या प्रभव्यजड़ इससे यह स्पष्ट होता है कि ये संस्कार कभी किसी धागा पहनले तो वह रत्नत्रय युक्त हो जावेगा? के पूरे होंगे ही नहीं, क्योंकि यह कैसे ज्ञात हो कि इस ६. कोई कहे कि यह प्रत का चिह्न है या अतों की भाव में संस्कार होने हैं या नहीं। याददास्त दिलाने के लिए संकेत का काम करता है। ४. इन क्रियाओं का कोई प्राधार एवं संगति नहीं होते कषामों या पाप से विरक्त होना प्रात्मीय गुण है, जड़ हुए भी यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि क्या उपनीति प्रादि धागा उसका चिह्न नहीं हो सकता फिर माजकल तो इसे क्रियानों के प्राधार से यज्ञोपवीत प्रावश्यक ठहरता है। सभी धारण करते हैं-प्रती भी एवं प्रश्नती भी। फिर उपनीति क्रिया के अनुसार विद्याध्ययन काल में यह प्रतियों के किस का सूचक है ? कमर में मूंज की तीन लर की डोर, गले में सूत का प्रती स्त्रियां इसे क्यों नहीं पहनती यह भी एक प्रश्न यज्ञोपवीत एवं सिर का मुंडन संस्कार रहना चाहिए। है? यदि कोई सावधानी के लिए याददास्त कराने हेतु व्रतचर्या संस्कार के अनुसार उस काल मे ब्रह्मचर्य पूर्वक जनेऊ पहनना चाहे, वह भले ही सूत का मोटा रस्सा पहने, रहते हुए जमीन पर अकेले सोना, ताम्बल प्रादि का किंतु दूसरों को इसे पहनने के लिए वाध्य क्यों किया सेवन न करना, वृक्ष की दतौन न करना, शुद्ध जल से जाय ? स्नान करना मादि नियमों का पालन करना होता है। प्रती स्त्रियों को याद दिलाने के.लिए उन्हें क्यों नहीं विद्याध्ययन समाप्ति होने तक इन नियमों का पालन पहनाया जाता? क्योंकि यह प्रावश्यक नहीं है। इन करना है और फिर सदा काल रहने वाले गृहस्थों के मूल- संस्कारों का वर्णन ३८, ३६ एवं ४० वें पवों में किया गुणों के व्रत धारण करने हैं इसलिए वृतावतरण संस्कार गया है । ४१ वें पर्व में राजा भरत कुछ स्वप्न देखते हैं में विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी योग्य जितने वृत लिए जिनके फलाफल जानने की इच्छा होती है। वे यह भी थे वे सब छोड़ दिए जाते हैं जो सार्वकालिक वृत (मधु, सोचते हैं कि मैंने ब्राह्मण लोगों की नवीन सष्टि की है मांस, पाँच उदम्बरों फलों का त्याग) हैं, वे रह जाते हैं। उसे भी भगवान के चरणों के समीप जाकर निवेदन करना इससे यह स्पष्ट हो गया कि उक्त क्रियानों के अनुसार चाहिए (श्लोक १२) (ध्यान रहे ऋषभदेव ने अपने यज्ञोपवीत ब्रह्मचर्यावस्था में उसी प्रकार लिया गया था राज्य काल में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूा बनाए थे) भरत जैसे मूंज की डोर कमर में ली गई थी या सिर का मुंडन चक्रवर्ती ने समवशरण में जाकर इस प्रकार निवेदन कर अन्य ब्रह्मचर्य की साधक प्रतिज्ञाएं ली गई थीं। ये किया।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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