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जन धर्म एवं यज्ञोपवीत
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११८। उत्तम संस्कारों को जागृत करने के लिए मोर वतरण क्रिया का स्वरूप इस प्रकार बताया गया हैद्विता प्राप्त करने के लिए शब्द-शास्त्र और अर्थशास्त्रादि जिसने समस्त विद्याये पढ़ ली हैं ऐसा श्रावक जब का अभ्यास करना चाहिए क्योकि प्राचार विषयक ज्ञान गुरु के समीप विधि के अनुसार फिर से माभूषण मादि होने पर इन के अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ।११। ग्रहण करता है, उसे व्रतावरण क्रिया कहा है। इसके बाद ज्योतिशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशारत्र और वर्तमान मे इन तीनों क्रियामों के उक्त वर्णन के गणितशास्त्र मादि का भी उसे विशेष रूप से प्रध्ययन माघार पर श्रावक या व्रती के लिए यज्ञोपवीत को भनिकरना चाहिए।१२।
वार्य बताया जाता है किन्तु परीक्षण करने से यह मत दीक्षान्वय क्रियानो के अन्तर्गत व्रतचर्या का वर्णन यथार्थ प्रतीत नहीं होता है। यज्ञोपवीत की अनिवार्यता ३६वें पर्व में इस प्रकार किया गया है
के विरोध में निम्न प्रकार से विचार किया जाता हैयज्ञोपवीत से युक्त हुमा भव्य पुरुष शब्द और अर्थ
१. भारत ने व्रतियों को सम्बोधित करते हुए दाना से प्रच्छी तरह उपासकाध्ययन के सत्रों का अभ्यास श्रावकाध्याय सग्रह में इन क्रियामो का उल्लेख बताया कर व्रतचर्या नाम की क्रिया को धारण करे ।५७। है। (पर्व ३८ श्लोक ५०) जिनसेनाचार्य से पूर्व रचित
व्रतावरण किया का गर्भान्वय क्रियानों के अन्तर्गत ऐसा कोई थावकाध्याय संग्रह नहीं मिलता और कोई ३८वें पर्व में इस प्रकार वर्णन किया गया है
श्रावकों के आचरण का ऐसा ग्रंथ नहीं मिलता जिसमें इन __ जिसने समस्त विद्यानों का अध्ययन कर लिया है, क्रियाओं का वर्णन हो जबकि पूर्व कालीन अनेक प्रामाऐसे उस ब्रह्मचारी की व्रतावतरण क्रिया होती है। इस णिक श्रावक के व्रतादिक का वर्णन करने वाले ग्रंथ मिलते क्रिया में वह साधारण व्रतों का तो पालन करता ही है हैं । यदि सस्कार उम गमय प्रचलित या मान्य होते तो परन्तु अध्ययन के समय जो विशेष व्रत ले रखे थे उनका इनका वर्णन अवश्य होता । परित्याग कर देता है ।१२१। इस क्रिया के बाद उसके २. भरत ने इन क्रियानों का नामोल्लेख करने के मधुत्याग, माँस त्याग, पाच उदम्बर फलो का त्याग और बार कहा है ' महर्षियों ने इन क्रियाओं का समूह अनेक हिंसा मादि पांच स्थूल पापों का त्याग ये सदाकाल रहने प्रकार का माना है परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर सक्षेप वाले व्रत रह जाते हैं ।१२२। यह व्रतावतरण क्रिया गुरु से ही उनके लक्षण कहता हूँ।" (श्लोक ६६-३८ पर्व) को साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर बारह या इससे लगता है कि भरत को स्वयं भी यह ज्ञात था कि सोलह वर्ष बाद करनी चाहिए ।१२३। पहले द्विजों का इन क्रियाओं का अन्य रूप भी था जिन्हें छोड़कर उन्होंने सत्कार कर फिर व्रतावरण करना उचित है और व्रता- किसी महर्षि विशेष द्वारा मान्य क्रियायो का वर्णन किया बरण के बाद गुरू की प्राज्ञा से वस्त्र, प्राभूषण और है यह भी ठीक है कि भरत के उक्त वर्णन तक ऐसे माला प्रादि का ग्रहण करना उचित है ।१२४। इसके बाद महर्षियों के ग्रन्थ ही नही बने होगे। श्रावक के इन यदि वह शास्त्रोपजीवी है तो वह अपनी माजीविका की तिरेपन संस्कारो के स्थान पर क्रियाकोष में निम्न ५३ रक्षा के लिए शस्त्र भी धारण कर सकता है अथवा केवल क्रियाएं श्रावक के लिए संगृहीत एवं मान्य की गई हैं। शोभा के लिए भी शस्त्र ग्रहण किया जा सकता है ।१२५॥ और जिनका प्राधार प्राचीन ग्रथो मे भी सुलभ होता है। इस प्रकार इस क्रिया मे यद्यपि वह भोगोपभोगों के ब्रह्म माठ मूल गुण, बारह व्रत, बारह तप, ग्यारह प्रतिमा, व्रत का अर्थात् ताम्बल मादि के त्याग का अवतरण भभेद समदृष्टि, चार दान, जल छानना, रात्रि भोजन (त्याग कर देता है तथापि जब तक उसके मागे की त्याग, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र । क्रिया नही होती तब तक वह काम परित्याग रूप ब्रह्मव्रत जबकि भरत द्वारा कथित उक्त तिरेपन संस्कारों की का पालन करता रहता है ।१२६॥
किसी प्राचीन जैन साहित्य से पुष्टि नहीं होती। ३६वें पर्व में दीक्षान्वय क्रियामों के अन्तर्गत व्रता- ३. गर्मान्वय एवं दीक्षान्वय संस्कार एक भव नहीं,