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अनेकान्त
.१९२, वर्ष २५, कि०४
समानी क्रियाएं दीक्षान्वय कहलातो पहले कही हुई क्रियानों के समूह से शादि को धारण
पास ४. गण- करने वाले उस भव्य पुरुषों के योग्य चिन्ह को धारण हैं-१. अवतार, २. वृतलाभ, ३. स्थान लाभ, ४. गण- करने वाले उस भव्य पञ्षों के
बन और उप- करने रूप उपनीति किया होती है ।५३। देवता मोर गुरु पह, ५. पूजाराध्य, ५. पुण्य यज्ञ, ७. दृढ़चर्या भौर उप- करने रूप उपनीति
हमा गर्भावय क्रियामों की साक्षी पूर्वक विधि के अनुसार अपने वेश, सदाचार को १४वी उपनीति क्रिया से मननिवृत्ति तक ४८ क्रिया भोर समय की रक्षा उपनीति क्रिया करत होती हैं।
सफेद वस्त्र एवं उपनीतादि धारण करना वेष कहलाता वय क्रिया-पण्य करने वाले लोगों को प्राप्त है। पार्यों के करने योग्य देवपजा पाटि को हो सकती हैं और जो समी चीन मार्ग की माराधना करने करने को वृत्त कहते हैं और इसके बाद अपने शास्त्र के के फल स्वरूप प्रवत्त होती हैं। ये ७ हैं-१. सज्जाति, अनुसार गोत्र, जाति मादि के दूसरे नाम धारण करने प रिव ३.पारिवाज्य, ४. सुरेन्द्रता, ५.साम्राज्य, वाले पुरुष के जो जैन श्रावक की दीक्षा है उसे समय ६. परमाहंन्त्य, ७. परम निर्वाण ।
कहते हैं ।५५,५६॥ इन क्रियानों के नामोल्लेख के बाद भरत ने इनका
३८वे पर्व में व्रतचर्या का वर्णन गर्भान्वय क्रियानों में याहन समस्त क्रियानो मे १४वा इस प्रकार किया गया हैउपनीति, १५वीं व्रतचर्या एवं १५वीं व्रतावतरण क्रिया
तीन लर की मूंज की रस्सी बांधने से कमर का चिन्ह यज्ञोपवीत से सम्बन्ध रखती है । अतः इन क्रियाओ का पूर्ण होता है, यह मौं नोबन्धन रत्नत्रय की विशुद्धि का अंग है विवरण प्रादि पुराण से उद्धृत किया जाता है
और द्विज लोगों का एक चिन्ह है ।१०१। अत्यन्त धुली से प्राइवें वर्ष में बालक की उपनीति क्रिया होती हुई सफेद घोती उसकी जांच का चिन्ह है, वह धोती यह भाइस क्रिया में केशों का मुंडन, व्रत बन्धन तथा सूचित करती है कि मरहत भगवान का कुल पवित्र और
जवायन की क्रियाएं की जाती हैं 1१०४॥ प्रथम हा विशाल है।१११। उसके वक्षस्थल का चिन्ह सात लर का जिनालय में जाकर जिसने पहंतदेव की पूजा का ह एस गंया हमा यज्ञोपवीत है, यह यज्ञोपवीत सात परम स्थानों उस बालक को व्रत देकर उसका मोजीबन्धन करना का सूचक है।११२। उसके सिर का चिन्ह स्वच्छ मौर चाहिए अर्थात उसकी कमर में मूंज की रस्सी बांधती उत्कृष्ट मुण्डन है जो कि उसके मन, वचन, कार्य के माहित १५ जो चोटी रखाये हुए है, जिसकी घोता मुंडन को बढ़ाने वाला है ।११६। प्राय: इस प्रकार के
मलपटा है, जो वेष भोर विकारों से रहित है, चिन्हों से विशुद्ध और ब्रह्मचर्य से बड़े हए स्थल हिंसा नोवत के चिन्हस्वरूप सूत्र को धारण किये हुए हैं। ऐसा का त्याग मादि व्रत उसे धारण करना चाहिए ।११॥ बबालक ब्रह्मचारी कहलाता है ।१०६। उस समय उसके इस ब्रह्मचारी को वृक्ष की दाँतोंन नही करनी चाहिए,न
के योग्य प्रौर भी नाम रखे जा सकते हैं । उस पान खाना चाहिए, न अंजन लगाना चाहिए और न समय बडे वभवशाली राजपुत्र को छोड़ कर सबका हल्दी प्रादि लगाकर स्नान करना चाहिए, उसे प्रतिदिन लिमे ही निर्वाह करना चाहिए और राजपुत्र को केवल शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए ।११। उसे खाट
में जाकर माता प्रादि से किसी पात्र से पर नहीं सोना चाहिए, दूसरे के शरीर से अपना शरीर नहीं
जानिए क्योकि उस समय भिक्षा लेने का रगड़ना चाहिए और व्रतों को विशुद्ध रखने के लिए अकेला मिर भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो, उसका मन- पृथ्वी पर सोना चाहिए।११६। जब तक विद्या समाप्त
Mista को समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य न हो, तब तक उसे यह धारण करना चाहिए और विद्या पसका स्वयं भोजन करना चाहिए।१०७-१०८1 समाप्त होने पर वे व्रत धारण करना चाहिए जो कि
Parnप्रियायों में उपनीति का वर्णन ३९६ पर्व गृहस्थों के मूल गुण कहलाते हैं । ११७। सबसे पहले इस .. में इस प्रकार है
ब्रह्मचारी को गुरु के मुख से श्रावकाचार पढ़ना चाहिए।