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________________ ११०, वर्ष २५, कि०३ अनेकान्त दान किया। उसके साथ हाथी, घोड़े तथा मणिमाणिक्य चर्चा में खोये हुए थे। अवसर पाकर सेठ ने मन्त्री को मादि से भरे हुए बत्तीस जहाज भी अर्पित किये। धक्का दे दिया। मंत्री समुद्र के गहरे पानी में समा गया। साथी की प्रगति को देखकर उस पर प्रसन्न होने कष्ट के समय भी उसने णमोक्कार' महामंत्र का स्मरण बालेविरल होते हैं। मध्यस्थ रहने वाले भी विरल होत किया। एक काष्ठ फलक उसके हाथ लगा। वह उसके है किन्त उस पर जलने वालों की सख्या अत्यधिक होती सहारे तैरने लगा। जहाज मागे निकल गये। है। सेठ सागरदत्त तृतीय श्रेणी का व्यक्ति था। मंत्री की योजना के सफल हो जाने पर सेठ की बाछे खिल राज-मान्यता तथा अपार समृद्धि उसके चुभन पैदा करने उठी। उसने बनावटी शोक व्यक्त करते हुए सौभाग्यलगी। किन्तु उसका उपचार भी क्या था? सागरदत्त ने सुन्दरी के प्रति महानुभूति व्यक्त की। सौभाग्यसुन्दरी निश्चय कर लिया, अब यहां नही रहना है। अपना प्रव बड़ी चतुर थी। उसने सारी परिस्थिति को तत्काल भॉप शिष्ट माल उसने बेच दिया और वहाँ से अनेक प्रकार लिया। सेठ की दुश्चेप्टाएँ बढ़ती जा रही थी। उसकी का माल खरीद कर जहाज भर लिया। मन्त्री को प्रस्थान पोर से उसके पास नाना प्रस्ताव पाए। उन्हें निष्फल के अभिप्राय से सूचित कर दिया । मन्त्री को भी अपने करने के अभिप्राय से उसने समय पर सोचने का सकेत घर की याद सताने लगी। उसने भी राजा से अनुमति दिया। कुछ ही दिनों में सारे जहाज गम्भीरपुर नगर के लो और तैयारी करने लगा। राजा ने प्राधे राज्य के बन्दरगाह पर पहुँचे। सौभाग्य सुन्दरी ने स्फूति से काम अनुपात से धन-धान्य दिया। उससे पाठ जहाज भर गये । लिया । वह तत्काल वहाँ से चली और भगवान ऋषभदेव राजकीय सम्मान के साथ उन्हें विदा किया गया। के मन्दिर में पहुँच गई। कपाट बन्द किए और बोलीमन्त्री के पास कुल चालीस जहाज थे। एक जहाज यदि मेरे शोल का प्रभाव हो, तो मेरे द्वारा बिना खोले सागरदत्त का था। मन्त्री को प्रचुर सम्पदा तथा सौभाग्य कपाट न खुले ।" वह वही धर्माराधना में लीन हो गई। सुन्दरी रानी को देखकर सेठ का मन ललचा गया। उन्हे अपने अधीन करने के लिए उसने एक षड्यन्त्र रचा । मन्त्री भी तट पर पहुँचा। पास में ही एक नगर था। एक दिन उसने मन्त्री से कहा- 'पृथक-पृथक जहाज में पर वही निर्जनता प्रतीत हो र बहकर हम एक दुमरे के साथ मंत्री नहीं निभा सकते। बढ़ा । बड़ा नगर, भव्य सजावट, बाजार मे नाना प्रकार अच्छा हो. तुम मेरे जहाज मे चले पायो। पहले की तरह की सामग्री से सज्जित बड़ी-बड़ी दुकाने थी। किन्त सहभोजन, सहकीडा तथा हास्य-विनोद करते हुए समय पूर्णतः शून्यता थी। किसी मानव के वहाँ दर्शन नही हो का निर्गमन करेंगे।" रहे थे। मन्त्री नगर के अनेक राजमार्गों में घूमता हुमा सज्जन अपने विचारों के अनुरूप ही दूसरे को दूसरे राजमहल की सातवीं मजिल पर पहुंचा। एक पल्यंक का प्रकन करता है। उसके मन मे पाप नही होता । मंत्री बिछा हुमा था। उस पर एक ऊंटनी बैठी थी। कुछ ही सागरदत्त के जहाज में आ गया। कुछ समय तक दोनो में दूरी पर कृष्ण और श्वेत, दो प्रकार के प्रजन तथा दो मुक्त चर्चाएं होती रही । सध्या का समय हुमा। सेठ ने अंजन शलाकाएँ वहाँ पडी थीं। मन्त्री का प्राश्चर्य और कहा-"सूर्य के पश्चिम में चले जाने पर कितना रमणीय बढा । उसने प्रतिभाबल से काम लिया । श्वेत अंजन को दृश्य हो जाता है। प्रायो, जहाज के छोर पर बैठ कर शलाका में भर कर ऊँटनी की आँखों मे डाला। ऊंटनी समद्रीय लहरो को देखने का प्रानन्द लें।" दोनों वहाँ दिव्य कन्या के रूप में बदल गई। उसने मन्त्रीका पहुँच गये। अपार जल-राशि को पार करते हुए जहाज वादन करते हुए भव्य प्रासन की ओर संकेत किया। प्रागे बढे जा रहे थे। सूर्य अस्त हो चुका था। अन्धर ने आश्चर्य ने और अधिक प्राश्चर्य को उत्पन्न किया। मारे समद को लील लिया था। केवल प्राकाश मे कुछेक मंत्री ने एक ही साथ कन्या से बहुत सारे प्रश्न पूछ डाले तारे टिमटिमा रहे थे। दोनों मित्र वहीं किसी अज्ञात --"तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? तुम्हारी ऐसी
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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