________________
४०, वर्ष २५, कि..
अनेकान्त
देवी के वाहनं गरुड को सर्प यज्ञोपवीत से युक्त प्रकित क्रमशः वरदमुद्रा और कमण्डलु उत्कीर्ण है। दाहिने पावं किया गया है। देवी पावं स्थित दो स्त्री चामरधारियों में स्थित चतुर्भुज सरस्वती की ऊपरी दाहिनी व बायीं द्वारा सेवित हो रही है। इनक समीप दो उपासक प्राकृ• मुजानो मे क्रमशः कमल और पुस्तक प्रदर्शित हैं । और तियाँ उत्कीर्ण हैं। पीठिका के ऊपरी भाग मे तीर्थकर निचली दोनो भुजाये वीणा वादन मे व्यस्त है। ऊपरी भाकृति से वेष्टित है। इस चित्र के ऊपरी भाग में भाग में विभिन्न वाद्य वादन करती प्राकृतियो को चित्रित चामरधारी स्त्री प्राकृतिया मोर मालाधारी उडायमान किया गया है। देवी प्रत्येक पावं में तीन सेवक प्राकृतियों विद्याधरों का प्रकन भी ध्यानाकर्षक है ।
द्वार वेष्टित हैं, जिनमें से दो अतिम सेवकों के अतिरिक्त बीस भुजामों से युक्त चक्रेश्वरी का प्रकन करने
सभी स्त्री प्राकतिया है । सभी प्राकृतियों की बाहरी भुजा वाली एक प्रतिमा मध्य प्रदेश के गंधावल नामक स्थान
कटि पर स्थित है व अंदर की भुजा में कमल प्रदर्शित है। से प्राप्त होती है, (१३) जिसमे देवी की अधिकतर
पृष्ठभाग मे अलंकृत कान्तिमण्डल से युक्त चक्रेश्वरी भुजायें सम्प्रति खडित हो चुकी है। शेष भुजानो मे अन्य
दुपट्टा, मुकुट व अन्य सामान्य प्राभूषणो से सुसज्जित है। मायुधों के साथ चत्रो का प्रदर्शन ध्यातव्य है। मूनि के
जैनधर्म व शिल्प में सरस्वती व प्रबिका के बाद ऊपरी भाग मे पांच पासीन तीर्थरो के साथ ही दो सबसे ज्यादा लोकप्रियता चक्रेश्वरी को प्राप्त हुई यह उडायमान गन्धवों को भी मूर्तिगत किया गया है । देवी
निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा चुका है। चक्रेश्वरी के दाहिने चरण के समीप गरुड़ उत्कोण है, जिसकी वाम की स्वतत्र मूर्तिया दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत भुजा मे सर्प प्रदर्शित है। चक्रवरा का बास भुजामो से से अधिक प्राप्त होती हैं, यह तथ्य चक्रेश्वरी के उत्तर युक्त ११वी शती की एक अन्य विशिष्ट भावात दवगढ़ भारत में विशेष लोकप्रिय रहे होने की पोर सकेत करता के मन्दिर नं. १६ से प्राप्त होती है, जो सम्प्रति घम- है। चक्रेश्वरी की उत्तर भारत से प्राप्त होने वाली शाला में स्थित है ।(१४) चक्रेश्वरी ललितासन मुद्रा में मूर्तियो के अध्ययन के उपरान्त यह प्रतिपादित किया जा गरुड़ पर पासीन थी, जिसके भग्न दाहिने हाथ में देवी सकता है। कि इस क्षेत्र के कलाकारों ने प्रतिमाशास्त्रीय का दाहिना चरण स्थित था । देवी की ऊपर तीन दाहिनी निर्देशो के विपरीत चक्रेश्वरी को कई नवीन स्वरूपों मे भुजामो मे चक्र और निचली में वरद और अक्षमाला मूतिगत किया और साथ ही प्रथो मे बणित स्वरूपों के प्रदर्शित है । एक अन्य भग्न दाहिनी भुजा मे गदा, जिसका निमितो मे भी नवीनताम्रो का समावेश किया। चक्रेश्वरी ऊपरी भाग ही शेष बचा है, स्थित था, शेष दाहिनी की उपासना जैनधर्म की १६ विद्या देवियों में से पांचवी' भजाएँ भग्न है। चक्रेश्वरी ने अपनी ऊपरी दो बायी किसानीतरी तिचाप में भी प्रत्यात भजामों मे चक्र और तीसरे मे ढाल धारण कर रखा है। प्रचलित थी। विद्यादेवी के रूप में भी देवी के साथ देवी की निचली भुजा में प्रदर्शित शख के अतिरिक्त सभी गरुड और चक्र को सदैव उत्कीर्ण किया गया है। विद्या भुजायें खण्डित हो चुकी है । मूर्ति के ऊपरी भाग मे तीर्थ- देवी के रूप में उत्कीर्ण किये जाने पर चतुर्भुज प्रप्रति कर के पासीन चित्रण के दोनो पावों में क्रमशः लक्ष्मी चक्रा के चारों भुजामो में चक्र प्रदर्शित किए जाने का (बायें) पौर सरस्वती (दाए) को मूर्तिगत किया गया विधान है, जिसका निर्वाह कुछ एक उदाहरणों को छोड़है। चतुर्भज लक्ष्मी की दोनो ऊपरी मुजामों में कमल कर कलाकारों ने नहीं किया है। फलत: यक्षो चकेश्वरी पखड़ियाँ अकित है मौर निचले दाहिने व बायें हाथों मे भौर विद्यादेवी अप्रतिचका में भेदकर पाना कभी कभी
मसंभव सा हो जाता है। १३. गुप्ता, एस० पी और शर्मा, बी० एन०, "गंधावल
की जैन मूर्तियों", अनेकान्त, वर्ष १६, नं० १.२, १५. देखें, शाह, यू०पी०, "प्राइकोनोग्राफी मॉफ दि अप्रैल-जून १६७६, पृ० १३० ।
सिक्सटीन जैन महाविद्याज", जर्नल इण्डियन सोसा। १४.बुन, क्लाज, दि जिन इमेजेज पॉफ देवगढ़, यटी मॉफ मोरियन्टल मार्ट, वा० १५, १६४७, पृ०१६-१७२।
पृ० १३२-३७ ।