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जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत
स्थानों पर सोने की कंठी को जनेऊ भी कहते हैं (जनेऊ विभिन्न कल्याणकों में इन्द्र का प्रागमन होता है, अन्यथा यज्ञोपवीत काही प्रचलित नाम है)। इस प्रसंग में इन्दौर श्रावक जिनेन्द देव की पूजा-प्रक्षाल करने के लिए अपने केसप्रसिद्ध पं.बंशीघर जी का एक कथन याद माता है पापको इन्द्र होने की कल्पना क्यों नहीं करता? पंचजो उन्होंने एक आचार्य श्री द्वारा यज्ञोपवीत पहनने के लिए कल्याणक प्रतिष्ठा पाठ में इन्द्र बनने वाला इन। जोर देने पर कहा था। उन्होंने अपनी सोने की कंठी को धारण करता है। इस धारण करने की प्रक्रिया के भी दिखाकर कहा कि यही यज्ञोपवीत है, इसे हम घारण उसमें श्लोक एवं मन्त्र दिये हा किए हुए हैं। इस पर वे प्राचार्य श्री कुछ नहीं बोले । पषो वस्त्र (सम्भवतः पोकती), दुकूल (वक्ष पर पहइन्द्र का यज्ञोपवीत के प्राभूषण होने का दूसरा प्रमाण नन का दुपट्टा), मुकुट, मवेयक, हार, कुण्डल, केयूर धारण
करने के बाद यज्ञोपवीत एवं कटि भूषण (कमर का गहना नीरदीप पजा विधान पहनने का विधान किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो में इन्द्र के प्राभूषणों का वर्णन इस प्रकार है
जाता है कि वक्ष पर कपड़े पहनने के बाद अन्य भाभूषणों थी जिन की पूजा करै सो नर इन्द्र समान ।
के साथ यज्ञोपवीत पहना गया है, इससे सिद्ध हुमा कि यह माभूषण पहिर इते, सो लोजे पहचान ।।
भी एक माभूषण ही है जो दाहिने हाथ के नीचे मोर बाये धरै सोस सु मुकुट सुहावनों,
हाथ के ऊपर होकर जाता होगा। भुजन बाजूबंद सुलावनो ।
पच कल्याणक की परिसमाप्ति के अनन्तर विधान करन कुण्डलमय सोहनी,
करने वाला निम्न श्लोक पढ़ कर गुरू के पास यज्ञोपवीत रतन जडित कड़े कर मोहनी ।। प्रादिक यज्ञ की दीक्षा के चिह्नों को छोड़ता हैसरस कंठ विर्ष कठो कही,
यज्ञोचितं व्रत विशेषवृतो ह्यतिष्ठन धुकधुकी अरू हार सुलहलही।
यष्टाप्रतीन्द्र सहितः स्वयमे पुरावत् पदम पहुंची पहर सुहावनी,
एतानि तानि भगवज्जिन यज्ञदीक्षाजगमगात सो जोति कहामनी।।
चिहान्यर्थष विसजामि गुरोः पदा। पहर के जो जनेऊ सारजू
यदि कोई इन्द्र के यज्ञोपवीत नामक प्राभूषण को कणक मणमई अति मनहार जू। खींचतान कर सूत के धागे वाला जनेऊ सिद्ध कर दे तो रतनमई कट मेखल जानिए
भी पच कल्याणक की समाप्ति के बाद इसे उतारने का परम छद्र सुघंटिक मानए ॥ स्पष्ट विधान है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्र जो यज्ञोपवीत धारण . अभिषेक पाठ में इन्द्र को सजाने के लिए योगी करता है वह कनकमय प्राभूषण है उसका सूत के धागे मुकुट, कुडल मादि प्राभूषणों के पहनने की से कोई सम्बन्ध नहीं है। उक्त पद्य में यज्ञोपवीत का प्रच- पाठ से की गई है किन्तु इन्हें उतारने की विधि
__करण नहीं किया गया है यह माश्चर्य का विषय है। लित पर्यायवाची शब्द 'जनेऊ' दिया है।
मियां जिनेन्द्र देव की पूजा बिना यज्ञोपवीत ही ऐसे प्रतिष्ठिा पाठ के प्राधार पर कुछ भटारकों ने * फिर पुरुष के लिए ही इसे मनिवार्य बनाना अलग अलग अभिषेक के कार्य को कम महत्ता दी गई है, नित्य नहीं रखता। अतः अभिषेक पाठ के उक्त किन्तु अभिषेक करने वाले को इन्द्र रूप में प्रस्तत करने
पर श्रावक के लिए यज्ञोपवीत के लिए उसे सजाने के लिए प्रत्येक भाभूषण का अलगकी प्रनिवार्यता सिद्ध नहीं होती यह मलतफहमी केवल अलग श्लोक एवं मन्त्र बना दिये हैं, मानों अभिषेक करने इसलिए हई कि प्रतिष्ठा पाठ के श्लोक मन्त्र दैनिक प्रक्षाल वाला जिनेन्द्रदेव से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति। पाठ में बिना सोचे-विचारे अपना लिए गये हैं, जहां पर लगता यह है कि जहां अभिषेक कराने वाला सेठ