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________________ १७८, २५, कि.४ अनेकान्त (ग) कु वक के लिये वह व्रत या कि श्री मन्मन्दर सुन्दरे शुचि जले घोते: सदर्भाक्षते । (क) इस श्लोक के अनुसार अभिषेक करने वाला पीठे मुक्तिवरं निधाय रचितां त्वत्पाद पद्मःस्रजः। अपने पाप को इन्द्र मानता है। यह मान्यता अभिषेक इन्द्रोऽहं निज भषणार्थकमिदं यज्ञोपवीतं दधे। करने वाले के लिए प्रावश्यक नहीं है क्योकि मनुष्य जिनेमुद्राणशंखराण्यपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे। न्द्र देव की पूजा प्रक्षाल करने का अधिकारी है तब वह इन्द्र बनने की कल्पना क्यों करे ? यह मान्यता मावश्यक इस श्लोक के अनुसार मभिषेक करने वाला अपने नहीं है। माप को इन्द्र मानकर अभिषेक के समय अपने प्राभूषण के स्वरूप यज्ञोपवीत, मुंदरी, कंगन पौर मुकुट धारण (ख) यदि श्रावक यज्ञोपवीत पहने हुए हो (जैसा करता है। कि कुछ भाई अावश्यक मानते हैं) तो वह प्रतिदिन मभिबृहत्पभिषेक पाठों में प्रत्येक प्राभूषण को पहनने के षेक करते समय यज्ञोपवीत पहनने का श्लोक एवं यंत्र क्यों पगता? इसका अर्थ यह हुमा कि वह पहने हुए पूर्व एक-एक श्लोक मौर मंत्र भी दिये हुए है। यथा नहीं रहता। यज्ञोपवीत के लिए (ग) कुछ भाई इसे व्रत-चिन्ह मानते हैं, इसीलिए "पूर्व पवित्रतर सूत्र विनिर्मितं यत प्रत्येक व्रती श्रावक के लिए इसे प्रावश्यक मानते हैं । प्रजापतिरकल्प यदंग संघ्रि । इन्द्र हमेशा अव्रती रहता है। फिर वह व्रत चिन्ह स्वरूप सद्भूषणं जिनमहे निजकंठधार्य यज्ञोपवीत कैसे पहन सकता है ? इससे सिद्ध हुआ कि यज्ञोपवीत महमेष तदा तनोमि । उक्त इलोक के अनुसार इन्द्र जो यज्ञोपवीत पहनता है, (ऊँ नमः परमशान्तायशान्तिकराय पवित्रि वह व्रत चिन्ह वाली यज्ञोपवीत नहीं है। कृतायाह रत्नत्रय स्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि ।) (घ) इन्द्र सूत की यज्ञोपवीत नही पहनता है, वह मुद्रिका के लिए यह श्लोक है एक प्राभूषण है। प्रोत्फुल्लनील कुलिशोत्पलपद्मराग, (ङ) इन्द्र के लिए बताए हुए अन्य प्राभूषणों यथानिर्जत् कर प्रकर बंघ सुरेन्द्रचापः । मुद्रा, ककण, मुकुट आदि पर जोर नहीं दिया जाता तब जैनाभिषेक समयेंगुलिपूर्वमूले, यज्ञोपवीत पर ही जोर क्यों दिया जाता है ? यदि इस रत्नांगुलीयकमहं निवेशयामि ।। इलोक के माधार पर ही अभिषेक करने वाले श्रावक के रत्नमुद्रिका अवधारयामि)। लिए यज्ञोपवीत पहनना प्रावश्यक होता तो इन अन्य इन इलोकों एवं मंत्रों के प्राधार पर यह सिद्ध किया माभूषणों को भी पहनना अनिवार्य बनाना चाहिए था। जाता है कि "भगवान का अभिषेक करने का अधिकारी चूंकि सूत का प्रचलित यज्ञोपवीत सहज सुलभ है इसीयज्ञोपवीतधारी ही है। मभिषेक करने के पूर्व यज्ञोपवीत लिए इसे अनिवार्य बना दिया गया एव अन्य प्राभूषणों पहनने का विधान इसलिए है कि इसे पहने बिना कोई को छोड़ दिया गया। भगवान का अभिषेक नही करे। चूंकि प्रत्येक जैन से यह (च) वस्तुतः उक्त श्लोक किसी पंच कल्याणक अपेक्षित है कि वह भगवान का अभिषेक करे, इसलिए प्रतिष्ठा पाठ का है जिसमें जन्माभिषेक में इन्द्र पाता है प्रकारान्तर से यह सिद्ध हुमा कि प्रत्येक जैन यज्ञोपवीत और वह अपनी सजावट के लिए मुद्रा, कंकण, मुकुट, धारण करे।" कुंडल, हार प्रादि पाभूषणों के साथ यज्ञोपवीत भी धारण भली प्रकार परीक्षा करने से यह ज्ञात होता है कि करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अन्य माभूयह फलितार्थ समीचीन नहीं है। मेरे इस मत के समर्थन षणों की तरह यज्ञोपवीत भी एक प्रकार का गले में हेतु निम्न तर्क है पहनने का माभूषण ही है। राजस्थान में अब भी कई
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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