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जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत
श्री बंशोधर जैन एम. ए.
यज्ञोपवीत शब्द का अर्थ है-यज्ञ का कपड़ा अर्थात् जैन श्रावकों-गृहस्थों के लिए मावश्यक एवं अनिवार्य वह वस्त्र जो यज्ञ के समय पहना जाता है। तैत्तरीय है ? श्वेताम्बर माम्नाय में यज्ञोपवीत की परम्परा नहीं संहिता में कपड़े का विशेष प्रकार से पहनना ही यज्ञोप- है ऐसी सूचना मिली है। वीत बताया गया है । जब कपड़ा दाहिने हाथ के नीचे जिनसेनाचार्य से पूर्व चरणानुयोग के मुख्य प्रन्थों में मौर बाए हाथ के ऊपर होकर जाता है तब वह 'यज्ञोपवीत' धावक-साधु के लिए यज्ञोपवीत का विधान देखने में नहीं कहलाता है। वही कपड़ा यदि बाएं हाथ के नीचे और माया । वट्टकेर स्वामी के मूलाचार, उमास्वामी के तत्त्वादाहिने हाथ के ऊपर होकर जायगा तो 'प्राचीनावीत 'कह र्थसूत्र, कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार तथा चारित्त पाहुलायेगा । प्राचीन काल में यज्ञोपवीत वस्त्र के रूप में था डादिक, स्वामी समन्तभद्र का रत्नकरण्ड प्रावकाचार, न कि धागे के रूप में । 'गोपथ ब्राह्मण' ने ऊध्र्व वस्त्र के की शिवायं भगवती माराधना, पूज्यपाद की सर्वार्षसिद्धि रूप में सुन्दर मृग चर्म प्रोढ़ने का विधान किया था। धीरे- अकलक देव का तत्वार्थ राजवातिक और विद्यानंद का घोरे यज्ञोपवीत वस्त्र, मगचर्म से 'धागे' पर मा गया ताकि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मादि प्रमुख मान्य एवं प्राचीन ग्रंथ इसे सुविधापूर्वक हमेशा पहना जा सके । वैदिक मत में हैं जिनमें मुनि धर्म एवं श्रावक धर्म का सर्वागीण विवे. चूंकि यज्ञ जीवन का प्रावश्यक अंग बन गया था, इसलिए चन है, किन्तु इनमें कहीं भी मुनि अथवा श्रावक के लिए यह निश्चित कर दिया गया कि यज्ञोपवीत बिना यज्ञ ही अन्य व्रतों की तरह यज्ञोपवीत को प्रावश्यक नहीं बताया। ही नहीं अपितु गायत्री मंत्र का पाठ भी नहीं किया जा
पादिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों सकता।
ब विभिन्न वर्गों के सहस्रों जैन स्त्री पुरूषों के कथानक हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का द्विजन्म तभी होता है, जब
किन्तु इनमें किसी के यज्ञोपवीत संस्कार होने का विवरण उनका यज्ञोपवीत संस्कार होता है, इसी से वे द्विज कहलाते
पढ़ने में नहीं पाया जब कि जीवन के छोटे से प्रसंगों का ऐसे प्रावश्यक एवं महत्वपूर्ण यज्ञोपवीतकी रचना, पहनन विवरण मिलता है। मादि के बारे में भी नाना प्रकार के विधि विधान वैदिक
इससे लगता है कि जिनसेनाचार्य से पूर्ववर्ती किसी साहित्य में मिलते हैं जो प्रायः एक रूप नहीं हैं । मध्य- प्राचार्य ने अपने ग्रंध में यज्ञोपवीत भावक या मुनि के काल में इसे हिन्दुत्व का चिह्न माना जाता था। लिए मावश्यक तो क्या उसका उल्लेख भी नहीं किया।
वैदिक मत में यज्ञोपवीत की उपयुक्त स्थिति के बारे में जिनसेनाचार्य ने सर्वप्रथम अपने मादिपुराण में यज्ञोपवीत जानकारी के साथ जैनधर्म में यज्ञोपवीत की क्या स्थिति है का वर्णन किया है किन्तु उक्त ग्रंथ में किसी केवली या यह विचार करना है।
धर्म प्रवक्ता ने इसे श्रावक धर्म के लिए प्रावश्यक नहीं ___'यश' शब्द मुख्यतः ब्राह्मण धर्म के क्रिया कांड का कहा । चूकि ग्रंथ में इसका वर्णन माया है, इसलिए कुछ सूचक है। फिर भी दिगम्बर माम्नाय के जिनसेनाचार्य भाई इसे विधेय रूप में मानने लगे हैं। (इसकी समीक्षा एवं उनके बाद के कुछ शास्त्रों में 'यज्ञोपवीत', 'ब्रह्मसूत्र' बाद में करेंगे।) या 'व्रत सूत्र' शब्दों का प्रयोग मिलता है। यहां यह विचार वर्तमान में पढ़े जाने वाले एक अभिषेक पाठ में निम्न रना है कि क्या यह यज्ञोपवीत वैदिक मत की तरह श्लोक उपलब्ध होता है