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१७६, वर्ष २५, कि०४
अनेकान्त
शील छोटा सउच लंगोटा पाऊ करे कर वंडा। सहज सुभाष करौं तन निर्मल जल में पइठन न्हाऊं। ब्रह्मचरण गुण चक चढ़ाऊ मपणहणों बलवंडा ।। तिल-गुड़ घिय करि देहु न माहुत, गूगल वहि न खेऊ । परम अंधारी कांबइ मेरइ, सोसजटा अनपेहा ।
नाटक चेटक वंदक चोनक, मिथ्या मंत्र न सेऊ ।। जोग जुगति जो गउटा पहिरौं वेह न कर सनेहा ॥
यंत्र न राषउं करम न बांघउ, कोरति दान न लेऊ । पंच प्रवासउ दा भुगति ज्यों दो कर खप्पर मांही। तिण कंचण-परि-मित्र समाण उ, दोष न विसही देऊं ॥ सरस निरस प्रा लाभ-प्रलाभई हरष विषाद जुनाहों। इंडी दंडउ पाप विहड जिन-शासन-मग-घाऊ । ज्ञान(ग्यान)गुफामहि रहे रयणि दिन ध्यान वन्हि परिजालों वेहा देवल देव निहालउ यह मन मन लाऊ ।। मिथ्यात-तिमिर-हतों खिण भीतर दरशन दीपक-बालों॥ गुणयानक चढि प्रकृति खिपाउं, केवलणाण उपा। चारित चेला मुझ पहि भाई, प्रेम मही निशि वासो। समव सरण सुलहौं तत्क्षण इंदभि नाव बजाऊ । करुणा जोगणि संगह मारह, जगत रह्यो उदासो।। पंच लघूक्षर को थिति जाणउचउदह में गुण थाने । मोह-महा वह भूलि निवासो, माया नगरि न राचौं। पुण पंचम गति जाऊ तिहां हर वसुगण सिद्ध समान ।। मान महीधर निकट न जाऊ, वसुमद मदहि न मांवों॥ लोय शिखरि परि सदा विराजे, शिवनगरी घर मेरा। संवर-पोहण चढ़ि हो घाऊ, लोभ उदधि तिरजाऊ । जम्म न मरण जलांजलि देकर जगमहिं करौं न फेरा॥ प्रज्जव जल सगहों ततक्षण, कोष-हताश बुझाऊं ।। अनन्त चतुष्टय गुण गण राजहि तिनकी हौं बलिहारी। परम प्रराहण मुम पहि दीवी, मंडो गोरखधंधा। मन घर ध्यान जप शिवनायक ज्यों उतरह भवपारी ।। मूनोत्तर गुणमहि हं हं व उ, फेरी यो निरबंधा ।। जोगी रासा सुनहु भविकजन जिम तूटहि क्रम-पासो । सनता सुरसरि के तट वासो, और न तीरथ न्हाऊ। गुरु महिंबसेण चरण नमि, भनत भगौती दासो॥
[पृ० १७३ का शेशांष] प्रशोक के साथ प्रियदर्शी का भी उल्लेख होता। सुदर्शन हरणार्थ अशोक वाटिका मे रावण सीता को 'प्रियदर्शने" झील के अभिलेख से विदित होता है कि इसका जीर्णोद्धार तथा मथुरा मे माली कृष्ण-बलदेव को 'प्रियदर्शी' कह कर अशोक के राज्यकाल में तुष्यनामक राज्यकर्मचारी द्वारा संबोधित करता है। निमित्तज्ञानी भी महाराज सिद्धार्थ कराया गया था। तत्पश्चात् प्रियदर्शी ने इस कार्य को से कहते थे कि तुम्हारा पुत्र प्रियदर्शी होगा। राजामों का कराया। इससे विदित होता है कि अशोक के उत्तरा- का दर्शन कल्याणकारी समझा जाता था। सम्भव है कि इसी धिकारी भी प्रियदर्शी कहलाते थे । जैसा कि पहले वर्णन प्राधार पर ही मौर्य सम्राटों को जनता प्रियदर्शी कहकर किया जा चुका है अरे माई प्रभिलेख चन्द्रगुप्त अथवा सम्बोधित करती हो। बिन्दपार का है और इसमें भी प्रियदर्शी का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से मौर्यकालीन अभिअतः यह स्पष्ट है कि प्रशोक के पूर्वज भी प्रियदर्शी कह- लेख है इनमें से कुछ प्रशोक के तथा शेष संप्रति के हैं। लाते थे। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मौर्य इनके सम्बन्ध में किसी दूसरे लेख में प्रकाश डाला सम्राटों के लिए प्रियदर्शी शब्द का प्रयोग होता था।
जायेगा। भारतीय वांगमय का अध्ययन करने से विदित होता है कि जिन व्यक्तियों के दर्शन से सुखानुभूति होती थी १. बाल्मीकि रामायण पृ० ५२६ । उन्हें प्रियदर्शी कहकर संबोधित किया जाता था। उदा- २. हरिवंश पुराण पृ० १२८ ।
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