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जोगी रासा
कविवर भगवती दास
भगवतीदास बूढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे । इनके पिता का नाम किसनदास था । जाति अग्रवाल पौर गोत्र वसल था। भगवतीदास बुढिया से दिल्ली मा गए थे और दिल्ली के काष्ठासंधी भट्टारक मुनि महेन्द्रसेन के शिष्य हो गए थे। और भ० सकलचन्द्र के प्रशिष्य थे। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनि व्रत धारण कर लिया था। भगवनीदास पच्छे कवि थे। प्रापने हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा की है। प्रापकी समस्त उपलब्ध रचनाएँ सं० १६५१ से सं० १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं। प्रापकी रचनात्रों की संख्या ६० से ऊपर हैं। प्राप दीर्घ नीवी विद्वान थे । अापकी प्रायु ८० वर्ष से कम नहीं जान पड़ती।
प्रापको 'जोगीगसा' नाम की अप्रकाशित रचना प्रकाशित की जा रही है। प्राशा है पाठक जन उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। रचना सुन्दर और सरस है।
-परमानन्द शास्त्री
परम निरंजन भव-दुह-भंजन जिन जोगी जगनाथो। किसकी सुन्दरि किसके मन्दिर किसके सुत अरु भाई। मादि जगत गुरु मुकति रमणवर, ताहि नवाऊं मायो॥ रमणि पंखि ज्यों तरुवर बासो भोर भए तजि जाई ।। वोधि दिवस पर गणघर हुए ते सह पणमो पाया। किसके हय-गय-रहवर-पाइक किसकी राम दुहाई। साह शिरोमणि लोहाचारिज जिन जिनमग बताया ॥ मरण सम कोई संग न दूजा हंस अकेला जाई। पेरबहु हो तुम पेरबहु भाई जोगी जगमहि सोई। धन-जोवन थिर नांहि जगत में मोह न राच गवारा। घट घट अंतर वसइ चिदानन्द अलख लख नहिं कोई॥ पाप करत दुख दुरगति पावत ता दिन सग नहि दारा।। भव बन-भूलि रह्यो भमराबलि शिवपुर सुध विसराई। लख चौरासी जोयनि हई तस-यावर-छं काई। परम प्रतीन्द्रिय सो सुख तजिकर विषयन रह्यो लुभाई ॥ काल प्रनते भूरि भ्रमण करि सत गुरु संगति पाई॥ जम्मण-मरण जरा दुख देखद पर प्रापा न विचारह। पब मैं ऐसा जाण्यों रे भाई हों भ्रम-भल्यो अंधा। सम्यक जाण चरण दंसणगुण चेतन चित न चितारह। जोग जगति प्रा ध्यान सकति दिन क्यों तूटई क्रम फंदा । जो जग दुख सो सुख करि मान्यौ मरम न जान कोई। जोगी होइ करि जोग धरूं जग, अलख निरंजन जोऊ । खरश खजावत ज्यों सुख पावत पीव झरत दुख होई ॥ सदगुरु सोख हिरदै निज धारों निद्रा नेह न सोऊ ॥ विषय न सेवइ मढ़ न वेव शिव सुख सार न जानी। घरम शुकलपरि ध्यान अनुपम भारति रौद्र निवारों। शीत समैं ज्यों मरख मरकट तापत गना प्रानी ॥ समकित प्रासन दिन पदमासन पणतीसों मनपारौं । सरिता सायर वसुधा नरवर ईधन शिखि म प्रधाई। उत्तम क्षिमा मढी महि पैठों दश दिश कंथा भेंटइ । रामा रमण सरसरस भोजन त्यों जिय तृप्ति न पाई॥ तव-पावक नितषली भेलों दुरियन मावा नेरा। ज्यों जल खारो पीवत भाई बाढ़त तिस अधिकाई। जीववयागिरि कंवरि निवसउं, संयम भसम चढ़ाऊं। बोष सुधा संतोष सलिल बिन प्रोस न प्यास बुझाई ॥ सत्य संतोष श्रवण वोहमा मागम सिंगो बजाऊ॥ ज्यो धन हार तउ न संभार जमारी तर्जन जवा। सुमति-गपति खंगरी व बजाऊ माकिचन गुणगाऊ । परको संगति प्राप बघाना ज्यों नलिनी श्रम सूवा ।। पंच महावत विद्या सापों षोडभावना भाऊ॥
१. विशेष परिचय के लिये देखें, भनेकान्त वर्ष २०, कि० '३, पृ० १०४ ।