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रामगुप्त के अभिलेख
'परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय इतिहास में समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे । राम वेश नदी के तट वर्ती पुर्जन पुर ग्राम से खुदाई में जैन गुप्त और चन्द्र गुप्त (द्वितीय) रामगुप्त चन्द्र गुप्त द्वितीय तीर्थंकरों की तीन मूर्तियां प्राप्त हुई। जो जिला पुरात्तत्त्व के बडे भाई थे और वे समुद्र गुप्त तथा चन्द्र गुप्त संग्रहालय विदिशा में सगृहीत हैं। ये सभी मतियां खंडित (द्वितीय) के बीच गही पर बैठे थे। राम गूप्त की पत्नी हैं। इन तीनों प्रतिमानों की चरण चौकी पर लेख अंकित
हैं। उनमें एक मूर्ति चन्द्र प्रभ पाठवें तीर्थंकर की है पोर का नाम ध्रुवदेवी था। राम गुप्त सन् ३७० से ३७५
दूसरी वें तीर्थंकर पुष्पदन्त की है। तीसरी का पता तक छ: वर्ष राज्य कर पाया था कि एक खास घटना
नहीं चलता कि किस तीर्थंकर की है। इनमे चन्द्र प्रभ की घटी। हर्षचरित में कहा है कि-"परिपुर में शक नरेश
मूर्ति का लेख सुरक्षित अवस्था में मौजूद है। दूसरी नारी वेश धारी चन्द्र गुप्त द्वारा उस समय मारा गया, जब
प्रतिमा का लेख प्राधा अवशिष्ट है । अन्तिम पंक्ति नष्ट वह पर स्त्री का प्रालिंगन कर रहा था।" हर्ष चरित की टीका करते हुए शंकराचार्य (१७१३ ई.) ने इस घटना
हो चुकी है। तीसरी मूर्ति के लेख की केवल दो पंक्तियाँ की व्याख्या करते हुए बताया है कि शक नरेश राम गुप्त
अवशिष्ट हैं । प्रथम प्रतिमा की चरण चौकी पर उत्कीर्ण
लेख इस प्रकार है :की पत्नी ध्र व देवी को चाहता था। इसलिए वह अन्तः
"भगवतोऽहंतः। चन्द्र प्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महापुरमें चन्द्र गुप्त के हाथों मारा गया, जिसने अपने भाई की
राजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिकपत्नी ध्रुवदेवी का रूप धारण कर रखा था। उसके साथ
चन्द्र क्षमाचार्य-क्षमण श्रमण प्रशिस्य प्राचार्य सर्पसेन कुछ अन्य लोग भी नारी वेश मे थे।' इस घटना का
क्षमण शिष्यस्य गोल यान्त्या-सत्पुत्रस्य चेल क्षमस्येति ।" स्पष्ट सकेत राष्ट्र कूट राजा अमोघ वर्ष के शक संवत्
इसमें बतलाया गया है कि महाराजाधिराज श्री राम ७६५ (८७१) के सजान ताम्र लेख में भी पाया जाता है।'
गुप्त के द्वारा भगवान प्रहन्त चन्द्र प्रभ की प्रतिमा की अब तक ऐतिहासिक विद्वान राम गुप्त की ऐतिहा- स्थापना की गई। उन्होंने चेल क्षमण के उपदेश के सिकता पर एक मत नहीं हो पाये। राम गुप्त के नामा- कारण इसका निर्माण कराया था। चेलू क्षमण गोलक्याकित ताबे के सिक्के विदिशा तथा अन्य स्थानों से मिले
न्तिका सत्पुत्र और पाणिपात्रिक चन्द्र क्षमाचार्य का प्रशिष्य हैं। जिन पर स्पष्ट गुप्त कालीन अक्षरों में राम गुप्त
तथा सर्पसेन क्षमण का शिष्य था। इससे राम गुप्त के लिखा है। ये सिक्के बनावट, शैली और भार-मान में चन्द्र
धार्मिक विचारों का संकेत मिलता है । लेख की लिखा. गुप्त (द्वितीय) के सिक्कों के समान हैं। राम गुप्त के
वट गुप्त कालीन जान पड़ती है। इन पर उत्कीर्ण लेखों सिक्कों की एक भांत मे अन्य गुप्त राजामों के सिक्कों पर मिलने वाले गरुड़ के समान गरुड़ भी है।'
की लिपि समुद्रगुप्त के लेख पोर चन्द्र गुप्त द्वितीय के
साँची लेख (गुप्त सं०६३) की लिपि के साथ साम्य रखती सन् १९६६ में विदिशा (मध्य प्रदेश) नगर के निकट
है। इन प्रतिमा लेखों में महाराजाधिराज रामगुप्त का १.परिपुर च परकलत्र कामुकं कामिनिवेशगुप्तः चन्द्र- उल्लेख प्राप्त है। पर उनकी वशावली लेख मेनी गुप्तः शक पतिमशातयत् ।
गई। वंशावली दी होती तो उससे सन्द ह का स्थान नहीं -वर्षचरित निर्णयसागर प्रेस संस्करण पृ. २०० रहता। तो भी उपाधि और लिपित क्षण की विशेषतामों शंकराचार्य ने टीकामें उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- के कारण राम गुप्त का देवी चन्द्र गुप्तम् के रामगुप्त के "शकानाम प्राचार्यःशकपतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजाया ध्रुव- साथ समीकरण हो जाता है। देवी प्रार्थयमान चन्द्र गुप्तेन ध्रुवदेवी वैषधारिणा
समुद्रगुप्त का दूसरा बेटा चन्द्र गुप्त द्वितीय गुप्त संवत वेश जनपरिवृत्तेन रहसि व्यापादितः।"
५६ (३७५ ई०) में गद्दी पर बैठा था। अतः उस समय इस घटना का उल्लेख राष्ट्रकूट ताम्रलेखमें भी पाया जाता है
से पूर्व रामगुप्त राज्य का अधिकारी रहा होगा। अर्थात् ३. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरहवींश्च दीनस्तथा।
वह ३७० ईस्वी के लगभग राजगद्दी पर बैठा होगा। लक्ष्यं कोटिमलेख यन किलकलो दाता स गुप्तान्वयः ।। पौर ३७५ ईस्वी में उसके राज्य पर चन्द्र गुप्त द्वितीय ने येनात्याजितनु स्वराज्यमसकृद्वाह्यर्थ: का कथा।
अधिकार कर लिया होगा। चूंकि वे मूर्तिया राम गुप्तके हो स्तस्योन्नति राष्ट्रकूट तिलको ददितिकीकमपि ।।
द्वारा स्थापित हैं। इस कारण वे मूतिया गुप्त कालीन हैं -राष्ट्रकूट ताम्रलेख ए.इ.४ पृ. २५७ ।। पौर उनका समय ईसा की चतुर्थ शताब्दी होना चाहिए। ३. ज.म्यू. सो. इ. १२, पृ. १०३, १३, पृ. १२८ । । ४. देखो गुप्त साम्राज्य पृ. २०१।
५. दूसरी मूर्ति के लेख मे "पुष्पदन्तस्य" उल्लेख है।